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यापनीय परम्परा
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कन्याकुमारी के समुद्र तट के समीप सागरवर्ती चट्टान पर उट्ट कित एक चरण का चिह्न किसी तीर्थंकर के चरणचिह्न का प्रतीक है, इस सम्भावना के उपरिलिखित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पुष्ट हो जाने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सर्वप्रथम इस प्रकार चरणचिह्न के अंकन का प्रचलन किसके द्वारा, किस समय और किस अभिप्राय से प्रारम्भ किया गया।
अद्यावधि एतद्विषयक किसी ठोस प्रमाण के उपलब्ध न होने के कारण इस प्रश्न के हल के सम्बन्ध में भी अनुमान का अवलम्बन लेने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय दृष्टिगोचर नहीं होता। हां, जहां तक चरणचिह्न स्थापित करने के उद्देश्य का प्रश्न है, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि जिन क्षेत्रों में साधु-साध्वी अथवा धर्मप्रचारकों का थोड़े-थोड़े समय के व्यवधान से पहुंचना संभव नहीं था उन सुदूरवर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाले जैनधर्मावलम्बियों को अपने धर्म में स्थिर रखने के उद्देश्य से प्रारम्भिक उपाय के रूप में तीर्थंकरों के चरणचिन्हों की स्थापना की गई हो।
सभी भारतीय धर्मों एवं संस्कृतियों के गहन अध्ययन के पश्चात् भारतीय साहित्य को दो उच्चकोटि के शब्दकोषों की देन देने वाले पाश्चात्य विद्वान् सरविलियम मोन्योर ने जो यह अभिमत व्यक्त किया है कि महापुरुषों के चरणचिन्हों की पूजा का सर्वप्रथम प्रचलन जैन धर्मावलम्बियों ने किया। इस सम्बन्ध में प्रत्येक जिज्ञासु के मन में यह जानने की अभिलाषा उत्पन्न होनी स्वाभाविक है कि पवित्र चरणचिन्हों की स्थापना एवं पूजा का प्रचलन सर्वप्रथम किसके द्वारा और किस समय प्रारम्भ किया गया। इस जिज्ञासा का पूर्णरूपेण शमन करने वाला कोई ठोस प्रमाण न केवल जैन वांग्मय में अपितु सम्पूर्ण भारतीय जैन वांग्मय में अद्यावधि किसी इतिहास विद् एवं शोधार्थी विद्वान् के दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। किन्तु जैन वांग्मय के अध्ययन-अनुशीलन से इस एक निर्णायक निष्कर्ष पर तो सहज ही पहुंचा जा सकता है कि धर्माराघन के विषय में वर्णित नितांत अध्यात्ममूलक उपायों से भिन्न अनेक प्रकार के उपायों, विधि-विधानों, अनुष्ठानों, नियमों आदि का समय-समय पर अभिनवरूपेण आविष्कार करने में चैत्यवासी परम्परा और यापनीय परम्परा के प्राचार्य अथवा श्रमण सदा अग्रणी रहे हैं । जैन-धर्म के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हेतु उसे लोकप्रिय बनाने की उत्कट अभिलाषा से, अन्य धर्मावलम्बियों को अपने धर्मसंघ की ओर आकर्षित करने हेतु, जैनेतर धर्मनायकों द्वारा समय-समय पर प्रचलित किये गये परमाकर्षक उपायों से जैन धर्मावलम्बियों को अपने धर्मपथ से विचलित न होने देने के उद्देश्य से, अथवा दक्षिणापथ में बौद्धों, शैवों एवं वैष्णवों द्वारा समय-समय पर जैन धर्म का समूलोन्मूलन कर डालने के अभियानों से जैनधर्म की रक्षा करने के उद्देश्य से यापनीय संघ के दूरदर्शी प्राचार्यों ने किस-किस प्रकार के अभिनव उपायों का आविष्कार किया, इस विषय पर इसी
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