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________________ २२४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास --भाग ३ . होती है कि भगवान् पार्श्वनाथ का पदचिह्न भी कन्याकुमारी से लंका की ओर प्रस्थान करने वाले विद्वान् श्रमणों ने अथवा जैन धर्म के प्रचारकों ने कन्याकुमारी के सागर तट के पास समुद्र में अवस्थित इन दो चट्टानों में से एक चट्टान पर उट्टकित किया होगा। सागरतट से २०० गज की दूरी पर समुद्र में अवस्थित "श्रीपादपारै” नामक चट्टान पर जो मानव का चरणचिह्न उट्ट कित है, वह चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर का (संभवत: भ० पार्श्वनाथ का) चरणचिह्न है, अपने इस अभिमत की पुष्टि में श्री पद्मनाभन ने उपरिलिखित उद्धरणों में सर विलियम मोन्योर नामक एक शोधप्रिय पाश्चात्य विद्वान् का अभिमत प्रस्तुत किया है, उसका सारांश इस प्रकार है : ____ "चरणचिह्न की पूजा सुनिश्चित रूप से जैनधर्म में ही किसी समय प्रचलित हुई, इस तथ्य की पुष्टि करते हुए सर मोन्योर विलियम ने आबू पर्वत की यात्रा करते समय "बुद्धिज्म-(बौद्ध धर्म)" नामक अपनी पुस्तक में लिखा है-यह एक निर्विवाद सत्य है कि जैन लोग ही सबसे पहले चरणचिह्नों (पगलियों) की पूजा के माविष्कारक हैं। इस पर्वत पर जितने भी जैन मन्दिर हैं, उन सब में स्तम्भों पर प्राधारित गुम्बजाकार छत वाले छोटे देहरे हैं, जिनमें मकराने के पत्थर के शिलाखण्ड पर चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर के और मुख्यत: २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के चरणयुगल के उभरवां चिह्न उकित है। इन चरणचिह्नों की पूजा करने के लिए श्रद्धालु भक्तों के समूह इन चरणचिह्नों के समक्ष मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं। प्रणाम के पश्चात् इन चरणचिह्नों पर रुपया, चावल (अक्षत) एवं अनेक प्रकार के नैवेद्य भेंट करते हैं। भारतीय धर्मों में सर्वप्रथम जैनधर्म में चरणचिह्नों की पूजा प्रचलित हुई। वस्तुत: चरणचिन्हों की पूजा जैनधर्म से इतनी अधिक निकटता से सम्बन्धित है कि कोई अन्य धर्म इसके प्रथम आविष्कारक के रूप में अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर सकता। प्राचीन तमिल साहित्य की कृतियों में चरणचिह्नों की पूजा के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं। पोन्नूर की पहाड़ियों में प्राचार्य कुन्दकुन्द के, जिनकांची में वामन मुनि के और श्रवण बेल्गोल में प्राचार्य भद्रबाहु एवं चन्द्रगुप्त के चरणचिह्न विद्यमान हैं, जिनके प्रति तीर्थयात्री अपनी निस्सीम श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं।" इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के सन्दर्भ में विचार करने पर विद्वान् लेखक पद्मनाभन ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि कन्याकुमारी के पास सागर में श्रीपादपार नामक चट्टान पर जो मानव के चरण का एक भूरा चिह्न उट्ट कित है, वह निश्चित रूप से चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थकर के चरण का चिन्ह है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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