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यापनीय परम्परा ]
[ २२३ चरण चिह्न है", अपने इस अभिमत की पुष्टि करते हुए एस. पद्मनाभन ने अपनी पुस्तक "फोरगोटन हिस्ट्री आफ दी लैंड्स एण्ड' में आगे लिखा है :
Monuments found in these parts testify to the prevalence of Jainism in the olden days. There is epigrafic evidence to show that there were flourishing Jain settlements in Kottar, Kurandi, Tiruchcharanathumalai and Tirunandikka rai which are all in the present district of Kanyakumari. From the Jain vestiges and inscriptions found in Samanarmalai, Kalugumalai and Tiruchcharanathumalai in the districts of Madurai, Tirunelveli and Kanyakumari respectively, we learn that a large number of Jain monks who were there hailed from the above four places in Kanyakumari district, the erudite scholars and their disciples from these centres of learning left votive images cut on the rocks in different centres of Jain culture.”
एस. पद्मनाभन द्वारा किये गये उपर्युल्लिखित उद्धरण का सारांश यह है कि कन्याकुमारी प्रदेश प्राचीनकाल में-जैन साधुओं, जैन विद्वानों, जैन धर्म के प्रचारकों एवं जैन दर्शन का शिक्षण केन्द्र था। कन्याकुमारी से उस समय जैन श्रमरण, जैन विद्वान् भारत के विभिन्न भागों तथा लंका आदि विदेशों में भी जैन धर्म के प्रचार के लिए जाते ही रहते थे। कन्याकुमारी के सागर तट के पास समुद्र में जो दो पहाड़ियां है उनमें से एक पहाड़ी पर किसी महामानव के एक चरण का पवित्र चिह्न खुदा हुआ है । वह चरण चिह्न हल्के भूरे रंग का है । इस पद चिह्न के कारण वह पहाड़ी परम्परा से "श्रीपादपारै” के नाम से लोकों में प्रसिद्ध है। श्रीपाद का अर्थ है पवित्र चरण और "पारै" का अर्थ है पहाड़ी। वर्तमान कन्याकुमारी जिले के कोत्तर, कुण्डी, तिरुचरनत्तमले और तिरुनन्दिक्कर क्षेत्रों से जो पुरातत्व की सामग्री प्राप्त हुई है, उससे यह भलीभांति सिद्ध होता है कि इन चारों क्षेत्रों में प्राचीनकाल में जैन धर्मावलम्बियों की प्रति घनी और बड़ी ही समुन्नत वस्तियां थीं। श्रमणारमल, कलुगुमलै एवं तिरुच्चरनत्तुमले, जो कि क्रमश: मदुरइ, तिरुनेल्वेली और कन्याकुमारी जिलों में अवस्थित हैं, इन तीन क्षेत्रों से जो प्राचीन जैन धर्म सम्बन्धी अवशेष एवं शिलालेख आदि विपुल मात्रा में पुरातत्व विभाग को प्राप्त हुए हैं, उनसे हमें विश्वास होता है कि इन तीन क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में जो जैन श्रमरण उस प्राचीन कालावधि में विद्यमान थे वे कन्याकुमारी जिले के उपरिलिखित कोत्तर, कुरण्डी अादि चार क्षेत्रों से पाये थे। जैन सिद्धान्तों के उच्चकोटि के विद्वान् शिक्षाशास्त्रियों और उनके सकल विद्यानिष्णात स्नातक जब जैन संस्कृति के विश्वविद्यालय के स्तर के उन शिक्षा केन्द्रों से देश के विभिन्न भागों में गये तो वे एक सुदीर्घावधि तक उन विश्वविद्यालयों में अपनी उपस्थिति की पाने वाली पीढ़ियों को चिरकाल तक स्मृति दिलाते रहने के उद्देश्य से वहाँ की पर्वतमालानों की चट्टानों में अनेक मूर्तियां एवं शिलालेख उट्ट कित कर वहां छोड़ गये। इन मब पुरातात्विक साक्ष्यों से हमारे इस अनुमान पर आधारित विश्वास की पुष्टि
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