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________________ इतिहास प्रेमियों से यह निवेदन कर देना चाहता हूं कि प्रस्तुत "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक ग्रन्थमाला के मूलतो भवं मौलिकम इस अर्थ के अनुरूप आगमों में प्रतिपादित जैन धर्म के मूल स्वरूप को ही प्रमुख आधार मान कर जैन धर्म का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। इसका कारण यही है कि आगमेतर धर्मग्रन्थों में एतद्विषयक एकरूपता के दर्शन दुर्लभ हैं। यह तो एक निर्विवाद तथ्य है कि श्रमण भ. महावीर के धर्मसंघ का स्वरूप तीर्थप्रवर्तन काल से लेकर श्वेताम्बर-दिगम्बर यापनीय विभेद की दृष्टि से वीर नि. स. ६०९ तक और चैत्यों में नियत निवास करने वाली चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व की दृष्टि से देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण काल तक सुनिश्चित रूपेण इस प्रकार का नहीं था जिस प्रकार का कि वर्तमान काल में दृष्टिगोचर हो रहा है। उस समय भ. महावीर का चतुर्विध धर्मसंघ एकरूपता लिये ऐक्यता के सुदृढ़ सूत्र में आबद्ध था और आज वह विभिन्न इकाइयों में विभक्त है। आज इसमें अनैक्यता और वेष-वैभिन्य की दृष्टि से अनेकरूपता स्पष्टतः परिलक्षित होती है। पृथकशः अथवा समुच्चय रूप से किसी को पूछ लिया जाय, सभी स्वसम्मत धर्मस्वरूप, वेष, आचार-विचार, विधि-विधान आदि को ही तीर्थ-प्रवर्तन काल से प्रचलित एवं परम्परागत बतायेंगे। श्वेताम्बर-दिगम्बर-यापनीय के रूप में विभेद के अनन्तर और मुख्यतः देवर्द्धि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण काल के पश्चात से तो यही दुर्भाग्यपूर्ण दयनीय स्थिति चली आ रही है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर के विश्वकल्याणकारी धर्मसंघ की इस प्रकार की विशृंखलित स्थिति अनेक पूर्वाचार्यों महामनीषी महासन्तों के मन में खटकती रही। तित्थयर समो सूरि, समं जो जिणमयं पयासेई। आणं अइक्कमंतो, सो कापुरिसो न सप्परिसो। स एव भवसत्ताणं, चक्खुभूए वियाहिए। दंसेई जो जिणु दिळं, अणुट्ठाणं जहाहियं ॥ १ इन गाथाओं के निर्देशानुसार श्रमण भ. महावीर के धर्म-संघ के तीर्थंकर तुल्य एंव नेत्र समान महान् आचार्यों ने अपने गरिमापूर्ण आचार्य पद के कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए जिन प्रणीत-आगमानुसारी धर्म के स्वरूप को समय-समय पर चतुर्विध तीर्थ के समक्ष जन-जन के समक्ष निम्नलिखित रूप में रखा : वि. सं.७५७-८२७ आ. हरिभद्र याकिनीमहत्तरासूनु : १. भवती उ गमागम जंतु, फरिसणाइ पमद्दणं जत्थ। १ गच्छाचारं पइण्णय, अधि. १ (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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