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उल्लेख प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री में उपलब्ध हुए हैं उनका खुले मन से यथास्थान एक बार नहीं अपितु सैकड़ों बार उल्लेख किया है। यह उस काल का सत्य था जिसे उजागर करने में हमने कहीं भी अनुदारता नहीं दिखाई है।
पर साथ ही इन मन्दिरों एवं मूर्तियों आदि का स्थान-स्थान पर प्रस्तुत ग्रन्थ में उल्लेख करते समय मन में एक प्रश्न उठा कि एक साधारण छद्मस्थ द्वारा इनका इस प्रकार खुलकर उल्लेख किया जा सकता है तो आज से २५०० वर्ष पूर्व प्रभु की विचरण भूमियों एवं विहार नगरियों में यदि वस्तुतः मन्दिरों एवं जैन प्रतिमाओं की विद्यमानता होती तो उन सभी का उल्लेख निश्चित रूप से सैकड़ों बार नहीं अपितु हजारों बार गणधर अपनी एकादशांगी में अवश्यमेव करते। किन्तु सत्य तो वस्तुतः कुछ और ही प्रकट होता है। एकादशांगी के किसी भी अंग में प्रभु की विचरण भूमि के किसी एक भी नगर में ५ जिन मन्दिरों एवं जिन प्रतिमाओं का और उनमें प्रभु के शिष्यों एवं उपासकों में से किसी एक के भी वन्दनार्थ अथवा पूजार्थ जाने का कहीं किंचित्मात्र भी उल्लेख नहीं है।
यहाँ मैं स्पष्ट रूप से निवेदन कर देना चाहता हूं कि प्रस्तुत इतिहास माला के आलेखन के समय प्रारम्भ से ही 'इतिहास' शब्द की गौरवपूर्ण गरिमा को पूर्णरूपेण अक्षुण्ण बनाये रखने की दिशा में पूर्ण सावधानी बरती गई है। इतिहास वस्तुतः एक ऐसा दिव्य दर्पण है, जिसमें धर्म, समाज, राष्ट्र, संस्कृति, जाति, समष्टि आदि के अतीत के वास्तविक स्वरूप को, इन सबके अभ्युदय, उत्थान, पतन, पुनरुत्थान आदि की प्रक्रियाओं, कारणों आदि को प्रत्यक्ष की भांति देखा समझा जा सकता है और भूतकाल की भूलों को भली-भांति देख, सोच एवं समझ कर भविष्य में कमी उस प्रकार की भूलों की पुनरावृत्ति न हो, इस प्रकार का सुदृढ़-सुस्थिर मनोबल बनाया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रंथ माला में इतिहास के ये मूल गुण, ये मूल लक्षण मुखरित हो उठे, इस बात का यथाशक्य पूर्ण प्रयास किया गया है।
इतिहास के इसी मूल गुण अथवा लक्षण को दृष्टिपथ में रखकर भारत के विभिन्न प्रदेशों में, भिन्न-भिन्न काल में घटित हुए घटना-चक्र को क्रमबद्ध अथवा सुव्यवस्थित बना, टूटी हुई-बिखरी हुई इतिहास की कड़ियों को बिना मोड़े ही जोड़कर आगमों, आगमेतर ग्रन्थों, इतिहास-ग्रन्थों, ताम्रपत्रों, गुहा-लेखों, शिलालेखों, स्तम्भलेखों, आयागपट्ट-मूर्तियों आदि पर उटूंकित अभिलेखों, ताम्रपत्रों आदि के आधार पर ही प्रस्तुत ग्रन्थ में इतिवृत्त का आलेखन किया गया है। जिन अभिलेख आदि का इस ग्रन्थ के लेखन में उपयोग किया गया है, उसमें भी इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि उस ग्रन्थ अथवा अभिलेख आदि के रचनाकार ने जिस रूप में घटना का चित्रण किया है, उसके उस रूप-स्वरूप अथवा भावों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन न होने पावे।
यहाँ मैं अतीव स्पष्ट एवं विनम्र शब्दों में सभी परम्पराओं के सहृदय पाठकों तथा
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