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________________ आज न तो वैसे पूर्वाभिनिवेश-मुक्त शुद्धचेता सरलमना सत्यान्वेषी केशि श्रमण ही कहीं दिखाई दे रहे हैं और न सर्वमान्य सयौक्तिक सत्पथ-प्रकाशक गौतम ही। ऐसी स्थिति में केवल प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट एवं गौतमादि गणधरों द्वारा ग्रथित एकादशांगी ही हमारा निर्णायक मार्गदर्शक बन सकती है। मानव मन की यह दुर्बलता है कि वह सहसा सरल मन से सत्य का साक्षात्कार करने से कतराता है। शताब्दियों से रूढ़ बन गई मान्यताओं से वह चिपका रहना अधिक सरल समझता है और इसीलिए उनसे लिपटा रहना ही श्रेयस्कर समझता है चाहे वह फिर कुपथ ही क्यों न हो, सत्य से विपरीत ही क्यों न हो, प्रभु महावीर के कथन से परे ही क्यों न हो। पूर्वाभिनिवेश और व्यामोह वशात् उस कुपथ का परित्याग करना साधारण जन के लिए अति दुष्कर होता है। __ 'न्यायात पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा' इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले लाखों में से कोई एकाध विरला ही महापुरुष मिलता है जो सामान्य जन को साहस के साथ सत्यपथ पर मोड़ने का प्रयास करता है। यही स्थिति इतिहास के पृष्ठों पर हमें पद-पद पर देखने को मिलती है। इतिहास के इन्हीं पृष्ठों को उजागर करने का और प्रभु महावीर के आगम प्रतिपादित श्रमण और आचार परम्परा पर प्रकाश डालने का साहसपूर्ण प्रयास इस इतिहास माला में 'आगम मर्मज्ञ मूर्धन्य इतिहासवेत्ता सरलमना सन्त आचार्य गजेन्द्र मुनि के मार्गदर्शन में किया गया है। इस सरलमना सन्त के कुशल मार्गदर्शन में इस ग्रन्थमाला का आलेखन और सम्पादन करते समय मेरे अन्तर्मन में यही मूलमन्त्र अनहद नाद की तरह निरन्तर गूंजता रहा है कि श्रमण भगवान् महावीर की वाणी ही अवितथ, त्रिकाल-सत्य, आदरणीय, अनुकरणीय और तन-मन-वचन से आचरणीय है। न्यायात् पथः प्रविचलन्नित पदं न धीराः के अनुयायी महान् सन्तों, साहसी आचार्यों, सत्यान्वेषियों और प्रभु महावीर के शुद्ध श्रमणाचार को प्रतिपादित करने वाले सुधारकों की जीवनियों आदि का लेखन-सम्पादन इस इतिहास माला में किया गया है। इस कार्य में कटुता, कदाग्रह, कटाक्ष, कुत्सित भाषा पूर्ण भावाभिव्यंजना एवं कुण्ठा से कोसों दूर रहकर सुधासिक्त सभ्य भद्र जनोचित शालीन भाषा में भावाभिव्यक्ति की गई है। जहां कहीं शिथिलाचार अथवा शिथिलाचारी जैसे शब्द दृष्टिगोचर होते भी हैं तो वे तक हमारे अपने नहीं हैं अपितु महानिशीथ, संघ पट्टक मूल तथा टीका, संघ पट्टक की प्रस्तावना, भाव सागर सूरि द्वारा रचित वीरवंश पट्टावली आदि ग्रन्थों एवं भव विरह याकिनी महत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र, अभयदेव सूरि आदि पूर्वाचार्यों द्वारा चैत्यवासियों के लिए प्रयुक्त किये गये उन्हीं के शब्द हैं। हमने तो जिस-जिस समय जहाँ जहाँ मूर्तियों एवं मन्दिरों तक के निर्माण आदि के (८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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