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________________ शिक्षा गुरु स्व. श्री पूनमचन्दजी सा. खींवसरा (एल. पी. जैन संकेतलिपि के आविष्कर्त्ता भी) मुझे उत्तराध्ययन सूत्र का "केसिगोयमिज्जं' अध्ययन पढ़ा रहे थे। उस समय चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महा मुणी ॥ अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरुत्तरो । एगकञ्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ॥ इन गाथाओं को पढ़कर मेरे अन्तर्मन में जिज्ञासाएं तरंगित हो उठीं । अथाह ज्ञान के सागर केशिकुमार श्रमण द्वारा गौतम स्वामी से पूछे गये 'धम्मे दुविहे मेहावि । कहं विपच्चओ न ते' इस प्रश्न को पढ़कर तो मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैंने अनेक प्रश्न किये अपने अध्यापक गुरुदेव से । मेरे सभी प्रश्नों का समाधानकारी उत्तर मिला और पाठ की समाप्ति के बाद जब मैंने यह पढ़ा कि प्रभु गौतम के हृदयस्पर्शी विवेचन से चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ के अन्तिम पट्टधर तीन ज्ञान सम्पन्न केशी श्रमण अपनी सभी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर तत्काल बेझिझक पार्श्व प्रभु के चातुर्याम प्रधान मुक्तिपथ से प्रभु महावीर के पंच महाव्रतपरक धर्मपथ पर आरूढ़ हो गये और प्रभु पार्श्व के चतुर्विध संघ के लाखों अनुयायियों ने पूरी निष्ठापूर्वक केशिश्रमण का पूरे सरल मन से अनुगमन किया, तो मुझे असीम आनन्द एवं परम सन्तोष की अनुभूति हुई । सत्य के प्रति केशिकुमार के तत्काल सर्वात्मना समग्र भावेन इस निश्छल समर्पण भाव की मेरे किशोर मन पर अमिट छाप अंकित हो गई। साथ ही मेरे बाल मन में एक प्रश्न उठा- 'क्या आज भी ऐसा हो सकता है ?' यह क्रान्तिकारी घटना आज से लगभग २५३४ वर्ष पूर्व की है। वह दो महान् परम्पराओं के संगम का, संधि का समय था । परन्तु आज तो, केशि श्रमण के पंच महाव्रतात्मक मुक्ति पथ पर आरूढ़ होने के समय से लेकर अद्यावधि पर्यन्त केवल एक महावीर की ही परम्परा चली आ रही है। उस समय केवल दो धाराओं को देखकर ही पार्श्वनाथ और महावीर के श्रमण आश्चर्य मिश्रित विचार मन्थन में निमग्न हो गये थे । पर आज तो केवल एक ही धारा है । पर इसमें भी 'धम्मे दुविहे मेहावि' के स्थान पर 'धम्मे सयविहे मेहावि' जैसी स्थिति को देखकर भी प्रत्येक जागरूक जैन चिंतित तो अवश्य है किन्तु केशि गौतम को भांति भ्रान्तियों को मिटाकर सत्य को क्रियान्वित करने का सरल मन से साहसी प्रयास किसी दिशा में दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके विपरीत आज प्रायः यही स्वर कर्णगोचर हो रहा है : " हम जो मानते, कहते और करते हैं वही सत्य है"। इसे काल प्रभाव ही कहा जा सकता है और क्या कह सकते हैं ? Jain Education International (19) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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