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प्रथम संस्करण सम्पादकीय
अटल कर्म-सिद्धान्त को सत्य सिद्ध करने वाले अद्भुत संयोग प्राणी मात्र के जीवन में आते हैं अकबर के प्रमुख सेनापति, इतिहास लेखक एवं संस्कृत व पर्शियन भाषा के विद्वान् श्री बदायूंनी को वैदिक एवं प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य के पर्शियन भाषा में अनुवाद करने का संयोग से सुन्दर अवसर मिला। अकबर की इच्छानुसार विपुल, वैदिक व संस्कृत साहित्य का उसने पर्शियन भाषा में अनुवाद करके प्रचुर प्रसिद्धि भी प्राप्त की। पर कार्य निष्पत्ति के अनन्तर उसने अपने शोक भरे उदगार इस रूप में प्रकट किये :-- "ए मेरे मौला ! मैंने ऐसा कौनसा बड़ा पाप किया था कि जिससे मुझे जीवन भर काफिरों के धर्मग्रन्थों का अनुवाद करना पड़ा।
__ आज के धार्मिक वातावरण की स्थिति में कतिपय महानुभाव समझ सकते हैं कि मुझे भी कतिपय अंशों में श्री बदायूंनी जैसा ही संयोग प्राप्त हुआ है।
पर बदायूंनी के उस संयोग में और मेरे इस संयोग में आकाश पाताल का अन्तर है। बदायूंनी ने उसे सम्भवतः दुर्भाग्यपूर्ण दुखद संयोग माना। पर मैं तो इसे संयोग ही नहीं, अपितु अपने कोटि-कोटि पूर्व जन्मों में संचित पुण्य के प्रताप से मिला एक बड़ा सुखद सुन्दर सुयोग समझता हूँ कि जीवन के उषःकाल में दस वर्ष की आयु से २४ वर्ष तक की आयु में परम धर्मनिष्ठ आगम मर्मज्ञ गुरु के चरणों में बैठकर जैन-वांग्मय के अध्ययन अध्यापन का और जीवन के संध्याकाल में समर्थ गुरु गजेन्द्र के कुशल निर्देशन में जिन शासन की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
जन-जन कल्याणकारी जिनधर्म को केवल अपनी ही बपौती सी समझने वाला कोई नामधारी इसे मेरी अनाधिकार चेष्टा न समझ बैठे इसलिए मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैंने अपने ही पुरातन कालीन पूर्वजों द्वारा सुसेवित एवं सुसिंचित जिनशासन रूपी सुरतरु की न केवल शीतल छाया का सुखाहादोपभोग ही किया है वरन् एक दो प्रसंगों पर तो अपनी किशोर वय में ही अपने शिक्षा गुरु के इंगित पर और स्वतःस्फूर्त प्रेरणा से भी जिनशासन की सेवार्थ अपने छोटे से जीवन तक को भी दांव पर लगा चुका हूँ और अब अपने जीवन की सांध्यवेला में इस युग के महान् योगी सन्त आचार्यवर श्री गजेन्द्रमुनि के निष्पक्ष निर्देशन में श्रमण भगवान् महावीर के विश्वकल्याणकारी सिद्धान्तों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा रखते हुए जिनशासन रूपी सुरतरु के नीचे एवं इसके इर्द-गिर्द पनपी खरपतवार को एवं बाह्याडम्बरपूर्ण छाये घने कोहरे को भी जिनशासन सिद्धान्त रूपी भास्कर की प्रखर किरणों के प्रक्षेप से दूर करने का साहसपूर्ण प्रयत्न भी किया है।
सन् १९३२ का एक पावन प्रसंग मेरे स्मृति-पटल पर आज भी प्रत्यक्ष की भांति प्रतिभासित हो उठता है। मेरी मनोभूमि में बोधिबीच का वपन करने वाले मेरे परम उपकारी
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