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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
यापनीय संघ के साधु-साध्वियों के लिये चार मास तक भोजन प्रादि की व्यवस्था हेतु पूरु खेटकं नाम ग्राम-दान दिये जाने का उल्लेख है ।
यापनीयों द्वारा मान्य श्राचारांग श्रादि सभी श्रागमों में किंचितमात्र भी परिग्रह का रखना साधु के लिये पूर्ण रूपेरण वर्जित है । पर ऐसा प्रतीत होता है कि नियत निवास अंगीकार करने के अनन्तर ही यापनीय परम्परा के साधुओं को मन्दिरों और साधु-साध्वियों के आहार आदि की व्यवस्था के लिए दान ग्रहण करने की आवश्यकता पड़ी हो । शास्त्रों में भिक्षुक के लिये भिक्षाटन द्वारा ही अपनी भोजन, वस्त्र, पात्र आदि की आवश्यकता पूर्ति का कठोर विधान है । प्रधाकर्मी सदोष आहार एवं राजपिण्ड तो साधु मात्र के लिये जैनागमों में विषवत् वर्जनीय बताया गया है ।
मृगेश वर्म, श्री विजय शिवमृगेषवर्म और रवि वर्मा द्वारा दिये गये भूमि दानों, ग्राम-दानों आदि के अनन्तर तो ऐसे शिलालेखों से पुरातात्विक शोधग्रन्थ भरे पड़े हैं, जिनमें यापनीय परम्परा, भट्टारक परम्परा, दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा के संघों और श्राचार्यों द्वारा भूमिदान, ग्रामदान, द्रव्यदान, भवनदान आदि ग्रहरण किये जाने के अगरिणत उल्लेख हैं । वस्तुतः यह सब प्रागम विरोधी आचरण नियत निवास अंगीकार करने का ही प्रतिफल प्रतीत होता है । इसी तरह यापनीयों में प्रचलित मूर्ति पूजा की परम्परा भी यापनीयों द्वारा नियत निवास अंगीकार कर लेने का परिणाम लगता हैं । दर्शन प्राभृत के टीकाकार दिगम्बराचार्य श्रुतसागर सूरि ने दर्शन प्राभृत की टीका में जो यापनीय परम्परा की मान्यताओं का दिग्दर्शन किया है, उसमें यापनीयों के लिये लिखा है "रत्नत्रयं पूजयन्ति " | इससे यह प्रतीत होता है कि प्रारम्भिक काल में यापनीय साध-साध्वी श्रावक-श्राविका गरण रत्नत्रय की पूजा करते थे न कि मूर्ति पूजा । एक स्थान में नियत निवास प्रारम्भ करने के पश्चात् चैत्यवासियों की देखा-देखी सम्भवतः यापनीयों में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन प्रारम्भ हुआ हो ऐसा अनुमान किया जाता है । 'जैनिज्म इन अरली मीडिएवल कर्नाटक' नामक अपनी पुस्तक में रामभूषणप्रसाद सिंह ने लिखा है
"Naturally the early Jainas did not practice image worship, which finds no place in the Jaina canonical literature. The early Digambara texts from Karnataka do not furnish authentic information on this point, and the description of their मूल गुरण and उत्तर गुण meant for lay worshippers do not refer to image worship. But idol worship first appeared in the early centuries of the christian era, and elaborate rules were developed for performing the different rituals of Jaina worship during early mediaval times."
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जैनिज्म इन अरली मीडियेबल करर्णाटक बाई रामभूषरण प्रसादसिंह पेज २३ मोतीलाल बनारसीदास द्वारा सन् १९७५ में दिल्ली से प्रकाशित ।
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