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________________ यापनीय परम्परा ] [ २१६ आचारांगादि आगमों के उद्धरणों एवं अपराजित सूरि द्वारा निर्मित दशवकालिकसूत्र की विजयोदया टीका से यह एक अतीव महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आता है कि यापनीय संघ आचारांग सूत्र से लेकर कल्प-सूत्र तक उन सभी आगमों को प्रामाणिक धर्मशास्त्र मानता था, जिनको श्वेताम्बर परम्परा मानती थी। इन सब उल्लेखों पर विचार करने के अनन्तर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यापनीय परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा के बीच टकराव को किंचित्मात्र भी अवकाश नहीं था। प्रारम्भिक स्थिति में यदि यह कहा जाय कि श्वेताम्बर परम्परा और यापनीय परम्परा दोनों आगमानुसार ही धर्म के पालन एवं उपदेश में प्रायः समान थी तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यापनीय परम्परा द्वारा एक बहुत बड़ा परिवर्तन यापनीय परम्परा की उपरि वरिणत मान्यताओं और उस परम्परा के श्रमणश्रमणी वर्ग के आचार-विचार से ऐसा प्रतीत होता है कि यापनीय परम्परा कतिपय शताब्दियों तक विहरूक अर्थात् अप्रतिहत विहारी ही रही। चातुर्मासकाल को छोड़ कर शेष वर्ष के आठ महीनों में वे देश के विभिन्न प्रदेशों में विचरण करते हुए धर्म का प्रचार-प्रसार करते रहे। पर कालान्तर में सम्भव है कि चैत्यवासियों के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर यापनीय संघ के साधु-साध्वियों ने, प्राचार्यों ने और अनुयायियों ने भी नियत निवास को अपने संघ के प्रचार के लिये परमावश्यक समझकर ईसा की चौथी शताब्दी में अपनाना प्रारम्भ कर दिया हो । मूल पागम में प्रतिपादित अप्रतिहत विहार को छोड़कर जो नियतनिवास अंगीकार किया गया यह जैनधर्म संघ में, श्रमणाचार एवं धर्म के स्वरूप में एक बहुत बड़े परिवर्तन का कारण बना। . नियत निवास को अंगीकार करने के कारण यापनीय परम्परा को भी अपने श्रमण-श्रमणियों के प्रावास हेतु वसतियों का निर्माण, मन्दिरों का निर्माण, धर्म के प्रचार हेतु विद्वानों को तैयार करने के लिए विद्यालयों आदि का निर्माण भी करवाना पड़ा । इन सब कार्यकलापों के लिये जब धन की आवश्यकता हुई तो यापनीयों ने भी श्रद्धालु भक्तों से एवं भक्त राजाओं से द्रव्य दान, भूमि-दान और ग्राम-दान आदि लेने प्रारम्भ कर दिये । ईसा की पांचवीं शताब्दी में कदम्बवंशी राजा श्री विजयशिवमृगेशवर्म ने कालबंग नाम ग्राम का एक तिहाई भाग, अहंत शाला, परम पुष्कल स्थान-निवासी साधुओं तथा जिनेन्द्र देवों के लिये जो दिया, वह वस्तुतः यापनीय संघ के श्रमणों को ही दिया गया दान था । लेख संख्या ९६ (जैन शिलालेख संग्रह भाग २) में कदम्ब वंशी राजा शान्तिवर्मा द्वारा यापनीय संघ को पलाशिका नाम नगर में जिनालय के निर्माण के लिये दान दिये जाने का उल्लेख है। इसी प्रकार लेख संख्या १०० में कदम्बवंशी राजा शान्तिवर्मा के पौत्र रविवर्मा द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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