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________________ २१८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ प्राचार्य रक्षित ने कहा- "इस कार्य में अनेक उपसर्ग होते हैं। बलाए बच्चों के रूप में उपस्थित हो नग्न कर देती हैं । यदि उन उपसर्गों से आप कहीं विचलित हो गये तो मेरा अनिष्ट हो जायगा।" सोमदेव का स्वाभिमान जागृत हो उठा और उन्होंने कहा-"मैं घोर से घोर उपसर्ग को सहन करने में समर्थ हूं। मैं कोई निस्सत्व व्यक्ति नहीं हूं। एक बार मैंने राज्य, राजा, प्रजा और राष्ट्र की वेदमन्त्रों के बल पर घोर दैवी आपत्ति से रक्षा की थी। मैं अवश्यमेव शव को उठाऊंगा।" इस प्रकार आर्य रक्षित ने खन्त सोमदेव को सुदृढ़ एवं सुस्थिर कर दिया और अन्य साधुओं के साथ वृद्ध साधु सोमदेव ने भी उस स्वर्गस्थ साधु के शव को अपने कन्धों पर वहन किया । जिस मार्ग से शव ले जाया जा रहा था, उस मार्ग में एक स्थान पर एक ओर आर्य रक्षित का साध्दी समूह खड़ा हुआ था। संकेतानुसार बालकों ने सोमदेव के कटिवस्त्र को उतारा और कटि प्रदेश के अग्रभाग की ओर एक सूत्र से बांध दिया। इस पर सोमदेव लज्जित तो हए कि मार्ग में उनकी पुत्रवधुए, पुत्रियां और दोहित्रियां आदि देख रही हैं, किन्तु अपने पुत्र के अनिष्ट की आशंका से शव को यथावत् ढोये हुए चलते रहे । शव को वे एकांत प्रदेश में ले गये और वहां समतल भूमि पर शव को रख अन्य साधुओं के साथ वहीं लौट आये जहां आर्य रक्षित विराजमान थे। आराधना और प्रभावकचरित्र के उपयुद्ध त उल्लेखों से यही सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में यापनीय और श्वेताम्बर दोनों संघों के साधुओं में समान रूप से यह परिपाटी प्रचलित थी कि दिवंगत साधु के शव को साधु-वर्ग कन्धों पर उठा कर जंगल में रख पाता था। ___ स्वयं यापनीय परम्परा के प्राचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों द्वारा निर्मित ग्रंथों के उपरिवरिणत उल्लेखों से यापनीय परम्परा की प्रमुख मान्यताओं एवं उस परम्परा के साधनों के आचार-विचार आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । इन सब उल्लेखों से यही निष्कर्ष निकलता है कि यापनीय परम्परा की मान्यताए, यापनीय परम्परा के साधुओं के प्राचार-विचार आदि श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं और श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार-विचार से दिगम्बर परम्परा की अपेक्षा अधिक मेल खाते थे। . शाकटायन के शब्दानुशासन की अमोघवृत्ति के उल्लेखों और अपराजित सूरि द्वारा मूलाराधना की विजयोदया टोका में अपने पक्ष की पुष्टि हेतु प्रस्तुत किये गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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