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यापनीय परम्परा ]
[ २१७ उपसर्गा भवन्त्यस्मिन्नुह्यमाने ततो निजम् । के तातमनुमन्येऽहमस्मिन् दुष्करकर्मणि ॥१७३।। उपसर्गर्यदि क्षुभ्येत, तन्नः स्यादपमंगलम् । विज्ञायेत्युचितं यत् तत्, तद् विधेहि समाधिना ।।१७४।। वहिष्याम्येव किमहं निःसत्वो दुर्बलोऽथवा । एतेभ्यो मामकीना तन्न कार्या काप्यनिर्वृतिः ॥१७५।। पुरा प्रत्यूहसंघातो, वेदमन्त्रैर्मया हतः। समस्तस्यापि राज्यस्य, राष्ट्रस्य नृपतेस्तदा ।।१७६।। ततः संवोढुरस्यांशे, शवं शवरथस्थितम् । पाचकर्ष निर्वसनं, शिशवः पूर्वरक्षिताः ।।१७७॥ अन्तर्दू नोऽप्यसौ पुत्र, प्रत्यूहभयतो न तत् ।
अमुचत् तत उत्सृज्य, स्थण्डिले ववले रयात् ॥१७८।। इन श्लोकों का सारांश यह है कि एक दिन एक साधु ने अपनी प्रायुका अवसान काल समीप समझ कर प्रशन-पानादि का परित्याग कर दिया और मालोचना-संलेखनापूर्वक प्राणोत्सर्ग किया। उसको निमित्त बना सोमदेव से कटिवस्त्र छुड़वाने के उद्देश्य से प्रार्य रक्षित ने एकांत में साधुनों से कहा-"मैं खन्त के समक्ष कहंगा कि दिवंगत साधु के शव को जो उठा कर ले जाता है, उसे महान् फल होता है । कर्मों की विपुल निर्जरा होती है। इस पर पूर्वदीक्षित और विद्वान् दोनों ही प्रकार के सभी साधु यह कहें कि हम इस साधु के पार्थिव शरीर को वहन करेंगे।" तदनन्तर प्राचार्य रक्षित के यह कहने पर कि साधु के शव को उठाकर ले जाने वाले को बहुत बड़ा फल मिलता है, सभी साधु उस शव को उठाने अथवा वहन करने के लिये उठ खड़े हुए और शव को उठाने के लिये तत्पर हो सभी क्रमशः कहने लगे "इस शव को मैं उठाऊंगा क्योंकि मैं पूर्वदीक्षित हूं। कोई कहने लगा कि मैं उठाऊंगा क्योंकि मैं ज्ञानवृद्ध हं।" इस पर कृत्रिम कोपपूर्ण स्वर में प्रार्य रक्षित ने उन साधुओं से कहा-"पाप ही सब लोग कहते हैं कि हम शव को ढोयेंगे, तो क्या आप सब यह चाहते हैं कि मेरा कोई प्रात्मीय अपने कर्मों की निर्जरा न करे, केवल पाप लोग ही निर्जरा कर लें?"
यह सुन कर वयोवृद्ध सन्त सोमदेव ने प्रार्य रक्षित से पूछा "क्या पुत्र! इस कार्य में विपुल निर्जरा होती है ?"
इस पर प्राचार्य ने कहा--"हां तात ! अवश्यमेव, इसमें कहना ही क्या है।" इस पर सोमदेव ने कहा-"तो मैं भी शव को अवश्य ही वहन करूंगा।"
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