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________________ २१६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ एवं कालगदस्स दु, सरीरमंतोवहिज्ज बाहिं वा।। विज्जावच्चकए तं, पयं वि किं चंति जदगाए ॥ १९६६ ।। वेमारिणो थलगदो, सम्ममि जो दिसि य वारणवितरप्रो। गड्डाए भवरणवासी, एस गदी से समासण्णे ॥ २००० ।। इन गाथानों का सारांश इस प्रकार है:-यदि किसी साधु का देहावसान हो जाय तो साधु लोग ही उस शव को अपने कन्धों पर उठा कर दूर जंगल में एकान्त में ले जाकर यतनापूर्वक वहां रख दें और अपने स्थान पर लोट पाबें । दूसरे दिन पुनः जंगल में उसी स्थान पर जायें और उसी शव की जांच पड़ताल करें। यदि वह शव जिस दशा में रखा गया था, उसी दशा में समतल भूमि पर मिले तो समझना चाहिये कि उस साधु का जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न हो गया है। यदि शव किसी दूसरी दिशा की भोर मुड़ा मिले तो समझ लिया जाय कि वह जीव बारगव्यन्तर देव के रूप में उत्पन्न हो गया है। यदि वह शव किसी गड्ढे में पड़ा मिले तो समझना चाहिये कि उस साधु का जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न हो गया है। इन गाथामों से यह सिद्ध होता है कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी तक यापनीय संघ में यह परिपाटी अथवा प्रथा प्रचलित थी कि किसी साधु के दिवंगत हो जाने पर उसके शव को साधु ही अपने कंधों पर उठाकर जंगल में ले जाकर रख माते थे। __ वीर नि० सं० ५८४ (वि० सं०११४) से वीर नि० सं० ५६५ (वि० सं० १२५) के बीच की अवधि में युगप्रधानाचार्य पद पर रहे प्रार्य रक्षित के समय में श्वेताम्बर परम्परा में भी इसी प्रकार की परिपाटी प्रचलित थी। किसी साधु का प्राणान्त हो जाने पर उसके शव को साधु ही अपने कन्धों पर उठा कर ले जाते थे और जंगल में यतनापूर्वक समतल भूमि पर रख माते थे। इस सम्बन्ध में प्रभावक चरित्र के निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य हैं : अन्यदानशनात् साधी, परलोकमुपस्थिते ।। संशिता मुनयो देहोत्सर्गाय प्रभुणा दम् ॥१६॥ गीतार्या यतयस्तत्र, क्षमाश्रमणपूर्वकम् । महं प्रथमिकां चक्रुस्ततन्दूहने तदा॥१७०।। कोपामासाद् गुरुः प्राह, पुण्यं युष्माभिरेव तत् ।। उपार्जनीयमन्यूनं, न तु नः स्वजनवजैः ॥१७१।। अ त्वेति जनक: प्राह, यदि पुण्यं महद् भवेत् । महं वहे प्रभुः प्राह, भवत्वेवं पुनः शृणु ।।१७२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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