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________________ योपनीय परम्परा ] [ २२१ । मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में एक नहीं, अपितु अनेक निष्पक्ष विद्वानों का अभिमत है कि प्राचीन काल में जैन धर्मावलम्बियों में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। यापनीयों के विषय में श्रुतसागर के-"रलत्रयं पूजयन्ति", इस उल्लेख से यही अनुमान लगाया जाता है कि एक मात्र आध्यात्मिक भावपूजा में अटूट आस्था रखने वाले जैनों में समय की पुकार के अनुसार प्रारम्भ में रत्नत्रय की एवं तत्पश्चात् चरण युगल और अन्ततोगत्वा मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई हो। प्राचीन पुरातात्विक सामग्री के अवलोकन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि जैन धर्म के विभिन्न संघों के प्राचार्यों ने धार्मिक असहिष्णुता के मध्ययुगीन संक्रान्ति काल में जैनेतर धर्मसंघों द्वारा जैन धर्म संघ को क्षति पहुँचाने के सभी प्रकार के प्रयासों को विफल करने में अपनी ओर से किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। बौद्ध संघ आदि जैनेतर संघों द्वारा अन्य धर्मसंघों के अनुयायियोंउपासकों को अपनी ओर आकर्षित करने एवं अपने धर्मसंघ के सदस्य बनाने के लिये जिन-जिन अाकर्षक उपायों का अवलम्बन लिया उन उपायों को निरस्तनिष्फल बनाने के लिये जैनाचार्यों ने भी नयी-नयी विधानों, धार्मिक अनुष्ठानों की प्रणालियों, धार्मिक प्रायोजनों-उत्सवों, अष्टाह्निक-- महोत्सवों. सामूहिक तीर्थ यात्राओं आदि का समय-समय पर अभिनव रूपेण आविष्कार कर जैन धर्म संघ को क्षीण-दुर्बल अथवा नष्ट होने तथा अन्य शैव बौद्धादि धर्मावलम्बियों का शिकार होने से बचाया। तत्कालीन घटनाचक्र के पर्यवेक्षण से यही प्रतीत होता है कि यापनीय संघ उन अभिनव धार्मिक प्रणालियों के आविष्कार करने में अन्य संघों से अपेक्षया अग्रणी ही रहा एवं इस तरह अन्य तीथियों की छाया जैन धर्म संघ पर नहीं पड़ने दी। ___ यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महाराजा कनिष्क ने बौद्ध धर्म में सर्वप्रथम मूर्तिपूजा का प्रचलन किया। मूर्तिपूजा के प्रश्न को लेकर शक्तिशाली बौद्ध धर्म संघ महायान और हीनयान-इन दो संघों में विभक्त हो गया। कनिष्क द्वारा प्रचलित बुद्ध प्रतिमा और उसकी आकर्षक प्रतिष्ठा-पूजा आदि विधात्रों से जैन धर्म संघ की रक्षा हेतु कनिष्क के राज्य के चौथे वर्ष (वीर नि. सं. ६०६) में जैन संघ ने भी मथुरा के अति प्राचीन बौद्ध स्तूप (तीर्थकर की प्रौर्ध्वदेहिक क्रियानन्तर चितास्थल पर निर्मित स्मारक-स्तूप) में जिनेन्द्र की मूर्ति की स्थापना की। जैन धर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन किस प्रकार हुआ, इस पर प्रकाश डालते हुए तटस्थ विद्वानों ने अपना अभिमत निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त किया है : "Kanyakumari, otherwise known as Cape Comorin, the Land's End of India is one of the most sacred centres of pilgrimage to the Hindus. But it is astonishing to note that the sacred place was once a centre of Jain Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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