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________________ २१४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ समर्थन किया है। भगवती प्राराधना की विजयोदया टीका में यापनीय प्राचार्य अपराजितसूरि ने प्राचारांगादि प्रागमों के उद्धरण अपने पक्ष की पुष्टि में दिये हैं, वे इस प्रकार हैं : १. 'या वं मन्यसे पूर्वागंमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तत्कथं ? २. 'माचारप्रणिधौ भरिणतं' ३. 'प्रतिलेखेत् पात्रकम्बलं ध्रुवमिति, प्रसत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ?' ४. प्राचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो लोकविचयो नाम, तस्य पंचमे उद्देशे एव मुक्तम्-"पडिलेहेणं पादपुंछणं उग्गहं कदासणं अण्णदरं उवधि पावेज्ज ।" ५. वत्थेसणाए वृत्तं तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज, पडिलेहणं बिदियं । एत्य एसे जुग्गिदे देसे दुवे वत्याणि धारेज्ज पडिलेहण तिदियं । एत्य एसे परिस्सहं प्रणधिहासस्स तगो वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं । ६. पुनश्चोक्त तत्रैव-"पालाबुपत्तं वा दारुगपत्तं वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं अप्पबीजं अप्पसरिदं तहा अप्पाकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्सामीति" वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्य कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते ? ७. वरिसं चीवरधारी तेन परमचेलगो जिणो । ८. ण कहेज धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिदि । ६. कसिणाई वत्थकंबलाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहुगं इदि । १०. द्वितीयमपि सूत्रं कारसमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं प्राचारांगे विद्यते-"मह पुरण एयं जाणेज्ज-पातिकते हेमंतेहिं सुपडिवण्णे से प्रथ पडि... जुण्णमुवर्षि पदिट्ठावेज्ज ।' विक्रम की पांचवीं शताब्दी के यापनीय प्राचार्य शिवार्य द्वारा भगवती माराधना में उल्लिखित मेतार्य मुनि का पाख्यान, अधिकांश गाथाएं और उद्धत कल्प व्यवहार आदि अतशास्त्र जिस रूप में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं उसी प्रकार उसी रूप में यापनीय परम्परा में भी मान्य थे। भगवती माराधना की गाथा संख्या ४२७ की यापनीय प्राचार्य अपराजित (विजयाचार्य) द्वारा रचित विजयोदया टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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