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________________ यापनीय परम्परा ] [ २१३ यौक्तिक ढंग से सिद्ध किया है। यह तो सर्वविदित है कि दिगम्बर परम्परा "न स्त्रीणां तद्भवे मोक्षः" और "केवलिनः कवलाहारो न भवति", अर्थात् स्त्रियां उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकतीं और जिनको केवलज्ञान हो गया है, वे कवल यानि ग्रास के रूप में आहार (स्थूल माहार) नहीं करते-इन दो मान्यताओं को मानती और इन मान्यताओं का प्रचार करती है। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा की यह मान्यता है कि स्त्रियां उसी भव में मोक्ष जा सकती हैं और केवल ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने के पश्चात् भी केवली कवलाहार ग्रहण करते हैं। इस प्रकार यापनीय परम्परा भी श्वेताम्बर परम्परा की ही तरह स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति के सिद्धान्त की पक्षधर थी, यह स्पष्ट है। ___ यापनीय प्राचार्य शाकटायन (पाल्यकीर्ति) विक्रम की नवमीं शताब्दी के प्राचार्य थे। इनसे पूर्व के (विक्रम की आठवीं शताब्दी के) यापनीय प्राचार्य अपराजितसूरि (विजयाचार्य) ने विक्रम की पांचवीं शताब्दी के अपनी परम्परा के प्राचीन प्राचार्य द्वारा रचित २१७० गाथानों वाले वृहत् ग्रन्थ आराधना (मूलाराघना) पर विजयोदया नाम की टीका की रचना की। इन्हीं यापनीय परम्परा के प्राचार्य अपराजितसूरि (विजयाचार्य) ने श्वेताम्बर और यापनीय-दोनों परम्पराओं द्वारा समान रूप से मान्य दशवकालिकसूत्र पर भी विजयोदया नाम की टीका की रचना की । विजयोदया नाम की इन दोनों टीकामों में से प्राराधना की विजयोदया टीका प्राज भी उपलब्ध है। दशवैकालिक पर लिखी गई पूर्ण विजयोदया टीका तो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है किन्तु उसके अनेक उद्धरण प्राज भी उपलब्ध एवं सुरक्षित हैं । आराधना की विजयोदया टीका में स्वयं अपराजितसूरि ने दशवकालिकसूत्र पर स्वयं द्वारा लिखी गई विजयोदया टीका का उल्लेख करते हए लिखा है :-दशवकालिक टीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादि दोषा इति नेह प्रतन्यते । अर्थात् दशवकालिक की विजयोदया टीका में उद्गमादि दोषों का वर्णन कर दिया गया है। अतः यहां पिष्ट-पेषण नहीं किया जा रहा है । अपराजितसूरि द्वारा आराधना की विजयोदया टीका में किये गये उल्लेख से यह भी सिद्ध होता है कि उन्होंने अपने पूर्वाचार्य की रचना "भाराधना" की अपेक्षा जैनागम दशवैकालिकसूत्र को अधिक महत्त्व देते हुए माराधना पर टीका की रचना करने से पूर्व दशवकालिक पर टीका की रचना की। अपराजितसूरि अपर नाम विजयाचार्य ने माराधना की टीका में स्थानस्थान पर अपने पक्ष की पुष्टि हेतु श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य पाचारांग, उत्तराध्ययन प्रादि प्रागमों के उद्धरण प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हुए मुनियों को धर्मोपकरण के रूप में वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपुछरण, रखने, अावश्यकतानुसार एक, दो अथवा तीन वस्त्र रखने, उनकी प्रतिलेखना करने प्रादि का स्पष्ट शब्दों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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