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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
८. एपिग्राफिका कर्णाटिका आदि पुरातत्व के शोध ग्रन्थों में उपलब्ध याप
नीय परम्परा और इसके गरणों आदि से सम्बन्धित ३१ से ऊपर शिला
लेख ताम्रानुशासन आदि । ९. जैन साहित्य में यत्र-तत्र विकीर्ण यापनीय संघ सम्बन्धी उल्लेख । .
इस साहित्य के अवलोकन से यापनीय परम्परा की मान्यताओं के सम्बन्ध में जो थोड़े बहुत तथ्य प्रकाश में लाये जा सकते हैं, वे इस प्रकार हो सकते हैं :. दिगम्बराचार्य रत्ननन्दि ने 'भद्रबाहुचरित्र' नामक अपनी रचना में उल्लिखित "धृतं दिग्वाससां रूपमाचारः सितवाससाम् ।" इस श्लोकार्द्ध से यह स्वीकार किया है कि यापनीय संघ के साधु-साध्वियों और आचार्यों आदि का प्राचारविचार श्वेताम्बर परम्परा के साधु-साध्वियों के अनुरूप था । इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि यापनीय परम्परा की मान्यताएं अधिकांश में श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं से मिलती-जुलती थीं।
२. यापनीय संघ की मान्यताओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण उल्लेख यापनीय प्राचार्य एवं पाठ महा वैयाकरणों में से पांचवें महान् वैयाकरणी शाकटायन द्वारा रचित, पूर्वकाल में अतीव लोकप्रिय व्याकरण 'शब्दानुशासन' की स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति में उपलब्ध होते हैं। उन उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि यापनीय संघ उन सभी आगमग्रन्थों (आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, दशवकालिक आदि) को उसी प्रकार अपने प्रामाणिक धर्मग्रन्थ मानता था जिस प्रकार कि श्वेताम्बर परम्परा प्रारम्भ से लेकर आज तक मानती आ रही है। 'अमोघ वत्ति' के वे महत्त्वपूर्ण उल्लेख इस प्रकार हैं :
"एतमावश्यकमध्यापय", "इयमावश्यकमध्यापय ।” (अमोघवृत्ति, १-२२०३-२०४)
"भवता खलु छेदसूत्र वोढव्यम् । नियुक्तीरधीष्व नियुक्ती-रधीयते ।" (अमोघवृत्ति ४-४-११३-४०)
"कालिकसूत्रस्यानध्यायदेशकालाः पठिताः ।" (अमोघवृत्ति ३-२-४७) "अथो क्षमाश्रमणैस्ते ज्ञानं दीयते ।" (अमोघवृत्ति १-२-२०१)
यापनीय संघ के इन्हीं महावैयाकरणी प्राचार्य शाकटायन-अपर नाम पाल्यकीर्ति ने जैसा कि पहले बताया जा चुका है "स्त्रीमुक्ति प्रकरण" और "केवलिभुक्ति प्रकरण" नामक दो लघु ग्रन्थों की रचना कर "स्त्री उसी भव में मोक्ष जा सकती है" और "केवली कवलाहार ग्रहण करते हैं" इन दोनों मान्यताओं को बड़े ही
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