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यापनाय परम्परा ]
[ २११ धारण करने वाले, केवल कटिपट्ट धारण करने वाले और दिगम्बर (निर्वस्त्र) मुनि भी भगवान् महावीर के श्रमणसंध में विद्यमान थे।
. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अप्रतिहत विहार करते समय तथा भिक्षाटन करते समय अग्रहार अथवा कटिपट्ट धारण करने वाले मुनि संघभेद के समय अर्थात् वीर नि० सं० ६०६ में भी विद्यमान थे और उन्होंने भगवान् महावीर के संघ को छिन्न-भिन्न होने, छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटकर विघटित न होने देने के सद्देश्य से ही श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच समन्वय बनाये रखने हेतु इन दोनों सम्प्रदायों के बीच का मध्यमार्ग अपनाया और उनका संघ यापनीय संघ-गोप्य संघ अथवा मापुलीय संघ के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ।
यह है यापनीय संघ की उत्पत्ति का इतिहास जो श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो संघों में भगवान महावीर के धर्मसंघ के विभक्त होने के समय अर्थात् वीर नि. सं. ६०६ में अथवा धर्मसंघ के विभक्त होने के एक दो दशक पीछे अस्तित्व में आया।
- यापनीय संघ को मान्यताएं
यापनीय संघ की मान्यताएं क्या थीं, इस सम्बन्ध में पूर्ण प्रथवा सांगोपांग विशद् विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता क्योंकि आज यापनीय परम्परा कहीं अस्तित्व में नहीं है । उसको समाचारी एवं मान्यताओं का अथवा उसके दैनन्दिन कार्यकलापों अर्थात् दिनचर्या का विस्तृत विवरण बताने वाला साहित्य भी आज कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । केवल निम्नलिखित थोड़े से ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं :
१. शिवार्य की मूलाराधना, २. यापनीय प्राचार्य अपराजित अपर नाम विजयाचार्य द्वारा रचित
(मूलाराधना की) विजयोदया टीका। ३. शाकटायन (पाल्यकीर्ति) द्वारा रचित स्त्रीमुक्ति प्रकरण, ४. यापनीय आचार्य अपराजितसूरि द्वारा रचित दशवकालिकसूत्र की
विजयोदया टीका के कतिपय उद्धरण ५. शाकटायन अपर नाम पाल्यकीर्ति द्वारा ही रचित केवली-मुक्ति प्रकरण ६. शाकटायन (पाल्यकीर्ति) द्वारा रचित शब्दानुशासन स्वोपज्ञ अमोघ
वृत्ति सहित। ७. हरिभद्रसूरि द्वारा रचित "ललितविस्तरा" में यापनीय परम्परा की
मान्यताओं अथवा समाचारी के ग्रन्थ "यापनीय तन्त्र" के उद्धरण।
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