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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ स्थाननिवासिभ्यः भगवदर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्य एकोभागः, द्वितीयोऽर्हत्प्रोक्तसद्धर्मकरणपरस्य · श्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमण संघोपभोगायेति ................।"१
अर्थात् प्रादि काल के राजा भरतचक्रवर्ती की नीतियों का अनुसरण करने वाले कदम्ब राजवंश के महाराजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्म ने कालवंग नामक ग्राम तीन भागों में विभक्त कर जैन संघों को दान में दिया। राजा ने उस कालवंग नामक ग्राम के तीन भाग कर एक भाग अर्हत्शाला परम पुष्कल स्थान निवासी साधुओं तथा महत्भगवान् जिनेन्द्रदेवों के लिये, ग्राम का दूसरा भाग वीतराग प्रणीत सद्धर्म की परिपालना में महर्निशं तत्पर श्वेताम्बर महा श्रमणसंघ के उपभोग हेतु और अन्तिम तीसरा भाग निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के उपभोग हेतु प्रदान किया।
अनुमानतः विक्रम की ५वीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थ चरण के इस अभिलेख से भी यही सिद्ध होता है कि वीर नि० सं० १००२ के आस-पास श्वेताम्बर मुनि और दिगम्बर मुनि-दोनों प्रकार के वेष वाले मुनि भारत के सुदूरस्थ दक्षिण प्रान्त में भी विद्यमान थे।
इसी प्रकार देवद्धि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल में भी श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय और केवल अग्रहार धारण करने वाले तथा बाहर आने-जाने की आवश्यकता पड़ने पर ही कटिपट्ट को धारण करने वाले मुनि भी भारत के विभिन्न भागों में विद्यमान थे । इस प्रकार के उल्लेख विपुल मात्रा में जैनवांग्मय में माज भी उपलब्ध होते हैं। आवश्यकता पड़ने पर ही कटिपट्ट धारण करने वाले अन्यथा केवल अग्रहार धारण करने वाले मुनि विद्यमान थे, इसकी साक्षी सम्बोध प्रकरण की निम्नलिखित गाथा देती है :
कीवो न कुणइ लोयं, लज्जइ पडिमाइ जल्लमुवणेइ ।
सोवाहणो य हिण्डई, बंधइ कडिपट्टमकज्जे ॥
इस गाथा का अन्तिम चरण "बन्धइ कडिपट्टमकज्जे" अर्थात् अकारण ही कटिपट कमर में बांधता है, इस बात का साक्षी है कि सम्बोध प्रकरण के रचनाकार प्राचार्य हरिभद्रसूरि के समय में अर्थात् विक्रम सं० ७५७ से ८२७-तदनुसार वीर नि० सं० १२२७ से १२६७ के बीच की अवधि तक ऐसे साधु विद्यमान थे।
इन सब उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि तीर्थप्रवर्तन काल से लेकर प्राचार्य हरिभद्रसूरि के समय तक निर्ग्रन्थ (विषय कषायों की ग्रन्थियों से विहीन) श्वेताम्बर, एक वस्त्र से लेकर तीन वस्त्र तक धारण करने वाले, केवल अग्रहार
' जैन शिलालेख संग्रह, भाग दो, लेख सं०६८, पृष्ठ ६६ से ७२
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