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यापनीय परम्परा ]
[ २०६ संघ विभेद से ८५४ वर्ष पश्चात् हुए प्राचार्य देवसेन और संघ विभेद से १४८६ वर्ष पश्चात् हुए आचार्य रत्ननन्दि के उपरिलिखित यापनीय संघ की उत्पत्ति के समय से सम्बन्ध रखने वाले उल्लेख कितने प्रामाणिक हैं, इसका निर्णय कोई भी विचारक सहज ही कर सकता है।
यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो उपर्युक्त अभिमत व्यक्त किया गया है, वह केवल अनुमान पर ही नहीं अपितु तत्कालीन तथ्यों पर भी प्राधारित है। दश पूर्वघर प्राचार्य वज्र स्वामी के (वीर नि० सं० ५४८ में ५८४) समय में और प्रार्य रक्षित के (वीर नि०सं० ५८४ से ५६५) समय में भी मावश्यकतानुसार एकाधिक वस्त्र, पात्र रखने वाले मुनि और गोप्य अंगों को (गुप्तांगों को) माच्छादित रखने मात्र के उद्देश्य से, उस समय अग्रहार नाम से अभिहित किये जाने वाले वस्त्रखण्ड और परिमित एवं प्रावश्यक धर्मोपकरण रखने वाले मुनि एकता के दृढ़ सूत्र में प्राबद्ध जैन संघ में विद्यमान थे, इस प्रकार के उल्लेख जैन वाङ्मय में प्राज भी उपलब्ध होते हैं। स्वयं प्रार्य व वस्त्रपात्रधारी मुनिसंघ के प्राचार्य के शिष्य थे और दूसरी ओर प्रार्य वज के पास ९ पूर्वो के ज्ञान का अध्ययन करने वाले प्रार्य रक्षित, अग्रहार, परिमित पात्र और पावश्यक धर्मोपकरणों के धारक मुनिसंघ के प्राचार्य थे ।' आचारांग, वियाह पण्पत्ति आदि प्रमुख अंगशास्त्रों के उल्लेखों के अनुसार तीर्थप्रवर्तन काल से ही भगवान् महावीर के संघ में वस्त्र-पात्रधारी साधु और अग्रहार प्रादि परिमित वस्त्र और परिमित पात्रादि धर्मोपकरणों के धारक मुनि-दोनों ही प्रकार के मुनि थे । पूर्वकाल में विशिष्ट अभिग्रहधारी जिनकल्पो साधुनों के उल्लेख भी प्रागमों और प्रागमिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में प्रार्य वज्र और आर्य रक्षित के प्राचार्यकाल में भी दोनों प्रकार के वेष वाले मुनियों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। इससे उत्तरवर्ती काल में अर्थात् देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् वीर नि० सं० १००२ से १०१७ तक सत्ता में रहे कदम्बवंशी राजा विजयशिव मृगेश वर्मा के राज्यकाल में भी दक्षिणापथ में दिगम्बर और श्वेताम्बर महासंघ की विद्यमानता के प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं।
इण्डियन एन्टिक्वेरी, वोल्यूम ७, पृष्ठ ३७-३८ अभिलेख सं० ३७ में कदम्ब महाराजा श्रीवित्रयशिवमृगेशवर्म द्वारा दिये गये दानपत्र की प्रतिलिपि विद्यमान है। उसमें निम्नलिखित उल्लेख है :
___..."प्रादिकालराजवृत्तानुसारी धर्ममहाराजः कदम्बानां श्रीविजयशिवमृगेश वर्म कालवंगग्रामं त्रिधा विभज्य दत्तवान् । अत्र पूर्वमर्हच्छाला-परम पुष्कल' विस्तृत जानकारी के लिये देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग २, प्राचार्य वच मौर रक्षित के प्रकरण ।
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