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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
मुमुक्षु के लिये ये पागम परम प्रमाणभूत एवं परम मान्य हैं। इन आगमों को ही अमान्य घोषित कर दिया गया तो प्राध्यात्मिक पथ अन्धकाराच्छन्न हो जायगा।
५. एकान्ततः दिगम्बरत्व के पक्ष की पुष्टि हेतु वस्त्र को मुक्ति प्राप्ति में बाधक तत्व बताकर जो 'स्त्रीणां न तद्भवे मोक्षः' इस सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना का प्रयास किया जा रहा है, उसे निरस्त किया जाय । स्त्रियों में भी पुरुषों के ही समान अध्ययन, चिन्तन, मनन, तपश्चरण, संयमाराधन आदि सभी प्रकार की योग्यताएं हैं। सहनशक्ति, तपश्चरण आदि कतिपय गुण तो ऐसे हैं, जो पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक और सबल हो सकते हैं । पुरुषों के समान स्त्रियां भी उसी भव में मोक्ष पा सकती हैं। अतः 'स्त्रीणां तद्भवे मोक्षः" यह सिद्धान्त सर्वमान्य होना चाहिये।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागमानुसारिणी इन सब मान्यताओं के पक्षधर उन दूरदर्शी मुनियों ने अपनी इन मान्यतामों को भगवान महावीर के धर्मसंघ के समक्ष रखा। प्रमाणाभाव में यह तो नहीं कहा जा सकता कि कितने श्रमरणश्रमणियों अथवा श्रावक-श्राविकामों ने इन मान्यताओं का समर्थन अथवा विरोध किया, किन्तु यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण जैन संघ इन समन्वयकारी मान्यतामों पर एक मत नहीं हो सका और उस प्रथम विभेद के समय ही भगवान महावीर का महान् श्रमण संघ तीन विभागों में विभक्त हो गया। वीर नि० सं० ६०६ अथवा ६०६ में ही श्वेताम्बर संघ, दिगम्बर संघ और यापनीय संघ (गोप्य संघ-यापुलीय संघ) इन तीन विभिन्न इकाइयों ने वीर नि० सं० ६०६ में ही अपनी-अपनी मान्यताप्नों के अनुरूप जैन धर्म का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ कर दिया।
__इस प्रकार तत्कालीन घटनाचक्र के परिप्रेक्ष्य में विचार करने से यही अनुमान किया जाता है कि वीर नि० सं० ६०६ अथवा ६०६ में हुए संघभेद के समय में ही यापनीय संघ का उदय हो गया था।
स्व० श्री नाथूराम प्रेमी, जिनकी सभी वर्गों के जैन विद्वानों में एक निष्पक्ष चिन्तनशील विद्वान् के रूप में गणना की जाती रही है, उन्होंने अपने "जैन साहित्य
और इतिहास" नामक ग्रन्थ में देवसेन प्रादि दिगम्बराचार्यों की .. "श्वेताम्बर दिगम्बर मतभेद के ६६ वर्ष पश्चात् यापनीय संघ की उत्पत्ति हुई"-- इस मान्यता को निरस्त करते हुए अपना निष्पक्ष अभिमत निम्नलिखित रूप मे व्यक्त किया है :
__ "यदि मोटे तौर पर यह कहा जाय कि ये तीनों ही सम्प्रदाय लगभग एक ही समय के हैं, तो कुछ बड़ा दोष नहीं होगा। विशेषकर इसलिये कि सम्प्रदायों की उत्पत्ति की जो-जो तिथियां बताई जाती हैं, वे बहुत सही नहीं हुआ करतीं।"' . 'जैन साहित्य और इतिहास-पृष्ठ ५६
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