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________________ यापनीय परम्परा । [ २०७ समूह ने आगमों के विलुप्त हो जाने की बात को अस्वीकार करते हुए यही मान्यता अभिव्यक्त की कि आगमों के कलेवर में पूर्वापेक्षया कालप्रभावजन्य बुद्धिमान्य आदि अनेक कारणों से यत्किचित् ह्रास अवश्य हुआ है, किन्तु जिस रूप में आज आगम अवशिष्ट हैं, वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, वीतराग भगवान महावीर की वाणी के आधार पर गरगधरों द्वारा ग्रथित ही हैं। इन दो प्रकार की मान्यताओं के परिणामस्वरूप भगवान महावीर का संघ दो भागों में विभक्त हो गया। यह विभेद क्रमशः कटु से कटुतर होता हुमा कालान्तर में कहीं अतिगहन खाई का रूप धारण कर चिरस्थाई न हो जाय और उसके परिणामस्वरूप भगवान महावीर का विश्वकल्याणकारी महान धर्मसंघ कहीं विभिन्न इकाइयों में विभक्त हो छिन्न-भिन्न न हो जाय अथवा सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भ० महावीर की अमृतोपम दिव्यवाणी के आधार पर गणधरों द्वारा प्रथित परम श्रेयस्कर पागम लोक में सदा सर्वदा के लिए अमान्य न हो जायं, इस भावी आशंका से चिन्तित हो कतिपय दूरदर्शी नग्न, अर्द्धनग्न अथवा एक वस्त्रधारी महामुनियों ने दो संघों के रूप में विभक्त हो रहे महान जैन संघ में समन्वय बनाये रखने के सदुद्देश्य से, दोनों पक्षों के साधुओं को जोड़े रखने वाली कड़ी के रूप में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों पक्षों के लिए सुग्राह्य हो सके, इस प्रकार का अपना एक समन्वयकारी पक्ष निम्नलिखित रूप में रखा : १. आचारांग सूत्र के निर्देशानुसार गोप्य गुप्तांगों को आच्छादित रखने हेतु सभी मुनि अल्प मूल्य वाला वस्त्र रखें। २. चर अथवा अचर सूक्ष्म जन्तुओं के प्राणों की रक्षा हेतु मयूर के सुकोमल पंखों से बना पिच्छ अथवा रजोहरण रखें। ३. अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चरित्र, अनन्त प्रात्मबल एवं अनुपमअपरिमेय शारीरिक बल के धनी तीर्थकर प्रभु के अनुरूप स्वरूप धारण करने का एकान्त मूलक हठाग्रह अथवा कदाग्रह इस उत्तरोत्तर हीयमान काल के मुनि न करें क्योंकि तीर्थंकर प्रभु तीर्थप्रवर्तन के पश्चात् भिक्षाटन भी नहीं करते थे, मुनि विशेष के द्वारा पात्र में लाया हुआ पाहार ही ग्रहण करते थे। वे पिच्छ (रजोहरण), पात्र, मुखवस्त्रिका आदि धर्मोपकरणों में में एक भी धर्मोपकरण धारण नहीं करते थे। ऐसी स्थिति में क्या एक भी मुनि आज ऐसा है, जो पिच्छ और पात्र (कमण्डलु) का परित्याग कर सकता हो ? ४. आज जो पागम उपलब्ध हैं, वे सर्वज्ञ प्रणीत हैं। वीतराग की वाणी को हृदयंगम कर गणधरों ने आगमों की रचना की है। प्रत्येक जैन के लिये, प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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