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[जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
उल्लेखों से क्रमशः सवा चार सौ से लेकर १०६३ वर्ष बाद के हैं। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन और उनकी तुलना में दिगम्बर परम्परा के अर्वाचीन उल्लेखों में से किस परम्परा के उल्लेख प्रामाणिकता की सीमा के समीप हैं, इसका अनुमान कोई भी विज्ञ सहज ही लगा सकता है ।
श्वेताम्बर दिगम्बर मतभेद किन परिस्थितियों में और किन कारणों से हमा, इस सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं के प्राचार्यों ने अपने-अपने पक्ष की पुष्टि करते हुए अपने दृष्टिकोण से प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इन दोनों परम्पराओं द्वारा बताये गये कारणों के तथ्यातथ्य के निर्णय का यह प्रसंग नहीं है। अभी तो हमें यापनीय परम्परा के उद्भवकाल पर विचार करना ही अभीष्ट है। ऐसी स्थिति में तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक होगा।
संघभेद के समय श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्य एवं श्रमण-श्रमणी समूहों ने एकादशांगी और अन्य भागमों को सर्वज्ञप्रणीत एवं गणधरों द्वारा ग्रथित बताते हुए उन्हें प्रामाणिक माना और उनमें जैन धर्म के स्वरूप, सिद्धान्तों एवं श्रमरणाचार आदि का जिस रूप में विवरण दिया गया है, उसे ही प्रामाणिक तथा आचरणीय माना । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों, श्रमरणों आदि ने यह अभिमत व्यक्त करते हुए कि एकादशांगी विलुप्त हो गई है, एकादशांगी सहित सभी प्रागमों को अमान्य घोषित कर दिया। मूलतः इसी प्रश्न को लेकर भगवान महावीर का महान् धर्म संघ दो भागों में विभक्त हो गया। दिगम्बर परम्परा की ओर से मुनियों के नग्न रहने के पक्ष में यह युक्ति प्रस्तुत की गई कि धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर स्वयं नग्न रहते थे अतः श्रमरण को भी निर्वस्त्र ही रहना चाहिये । श्वेताम्बर परम्परा की ओर से मुनियों के लिए वस्त्र, पात्र, मुखवस्त्रिका रजोहरण प्रादि धर्मोपकरणों की आवश्यकता पर बल दिया जाता रहा और अपनी इस बात की पुष्टि के लिए यह युक्ति प्रस्तुत की गई कि द्वादशांगी के प्रथम एवं प्रमुख अंग प्राचारांग में मुनियों को एक वस्त्र, दो वस्त्र अथवा तीन वस्त्र, पात्र आदि रखने तथा साध्वियों को चार वस्त्र रखने का विधान किया गया है। इस प्रकार गरिणपिटक के पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) में भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतमस्वामी के वस्त्र, पात्र मुखवस्त्रिका आदि धर्मोपकरणों का स्पष्ट उल्लेख विद्यमान है।
... जिनप्रणीत मागमों में मुनियों के वस्त्र, पात्र, मुखवस्त्रिका, रजोहरण प्रादि धर्मोपकरणों का स्थान-स्थान पर उल्लेख देखकर ही संभवत: नग्न रहने वाले साधुओं के समूह ने उस काल में उपलब्ध आगमों को अमान्य ठहराते हुए इस प्रकार की मान्यता प्रचलित की कि दुष्षम प्रारक के प्रभाव से आगमों का लोप हो गया है । वस्त्र, पात्र, मुखवस्त्रिका आदि धर्मोपकरणों को धारण करने वाले साधु
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