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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ अन्वयों के समान नाम वाले हैं। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा के किसी भी गरण अथवा गच्छ के समान नाम वाला यापनीय परम्परा का एक भी गण अथवा गच्छ आज तकं उपलब्ध हुई पुरातत्व सामग्री में प्राप्त नहीं हुआ है।
उदाहरण के रूप में देखा जाय तो इस अध्याय के प्रारम्भ में यापनीय परम्परा के संघों, गणों अथवा गच्छों के जो नाम दिये गये हैं, प्रायः वे ही अधिकांश नाम दिगम्बर परम्परा के संघों, गणों, गच्छों एवं अन्वयों के भी प्राचीन ग्रन्थों एवं प्राचीन ऐतिहासिक पुरातत्व सामग्री में आज भी उपलब्ध होते हैं। मूल संघ, मूल-मूल संघ, कनकोत्पलसंभूत संघ, पुन्नागवृक्षमूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, कण्डूर गण क्राणर गण आदि संघों, गरगों और अन्वयों के नाम इन दोनों (यापनीय और दिगम्बर) परम्पराओं में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर और यापनीय परम्पराओं के संघों, गणों आदि के जितने भी नाम आज तक उपलब्ध हुए हैं, अधिकांश में परस्पर एक दूसरे के समान हैं । श्वेताम्बर परम्परा के संघों, गणों अथवा गच्छों के नामों से यापनीय परम्परा का एक भी संघ, गण, अथवा अन्वय मेल नहीं खाता।
जहां तक यापनीय संघ की उत्पत्ति का काल जो दर्शनसार की उपयुद्ध त गाथा में बताया गया है, वह भी तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । प्राचार्य देवसेन ने यापनीय परम्परा की उत्पत्ति का समय विक्रम संवत् २०५ बताया है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भगवान महावीर के परम्परागत संघ में सर्वप्रथम जो श्वेताम्बर और दिगम्बर संघों के नाम से विभेद उत्पन्न हुआ, प्राचार्य देवसेन की मान्यतानुसार अथवा किन्हीं उन प्राचीन प्राचार्य के अभिमतानुसार, जिनकी कि गाथा का दर्शनसार में देवसेन ने संकलन किया है, उस विभेद के उत्पन्न होने के ६६ वर्ष पश्चात् यांपनीय संघ उत्पन्न हुआ। आचार्य देवसेन का यह अभिमत भी तत्कालीन परिस्थितियों एवं एतद्विषयक घटनाचक्र के सन्दर्भ में विचार करने पर संगत प्रतीत नहीं होता। इस सम्बन्ध में यहां निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करना प्रासंगिक व उपयुक्त होगा :
(१) यह तो एक निर्विवाद एवं सर्वसम्मत तथ्य है कि वीर निर्वाण सम्वत् ६०६ अथवा ६०६ में भगवान महावीर का महान चतुर्विध संघ श्वेताम्बर संघ और दिगम्बर संघ के रूप में दो भागों में विभक्त हो गया था ।
(२) वीर नि० सं०६०६ में उत्पन्न हुए इस संघ भेद का जो सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध है, वह इस संघभेद की उत्पत्ति से ४२३ वर्ष पश्चात का है, जो इस प्रकार है :
सावत्थी उसभपुरं, सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजिअ, रहवीरपुरं च गयराइं ॥ ७८१ ।।
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