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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग २
इस प्रकार परम्परा से ही नारीवर्ग को, धर्म के प्रति पुरुषों की तुलना में अधिक रुचि रही है । तथापि ईसा की चौथी शताब्दी से लेकर १०वीं शताब्दी तक की जो पुरातत्व की सामग्री देश के विभिन्न भागों से उपलब्ध हुई है, उसके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट रूप से यही तथ्य प्रकाश में आता है कि इस अवधि में कर्णाटक प्रदेश की स्त्रियों ने अन्य प्रदेशों की स्त्रियों की अपेक्षा धार्मिक कार्यों में अधिक संख्या में अभिरुचि प्रकट की। यह सब वस्तुतः यापनीय संघ द्वारा उस युग की परिस्थितियों के अनुकूल अपनायी गई सुधारवादी, समन्वयवादी एवं धर्माचरण के कठोर नियमों के सरलीकरण की नीति का ही प्रतिफल था। दिगम्बर परम्परा के आचार्यों द्वारा किये गये "स्त्रीणां न तद्भवे मोक्षः" की मान्यता के प्रचार के पश्चात् समन्वय नीति, सुधारवादी नीति का अथवा उदारतापूर्ण नीति का अनुसरण करते हुए यापनीयों द्वारा श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रतिपादित जिन तीन प्रमुख मान्यताओं का प्रचार-प्रसार किया गया, वे निम्न हैं :---
(१) 'पर शासने मोक्षः'- अर्थात् जैनेतर मत में रहते हुए भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
(२) 'सग्रन्थानां मोक्षः'-प्रर्थात् यह कोई अनिवार्य नियम नहीं कि वस्त्ररहितों का ही मोक्ष हो सकता है, वस्त्रसहित-सग्रन्थ-स्थविरकल्पी साधुओं का भी मोक्ष हो सकता है एवं गृहस्थाश्रमी साधक भी अपनी उत्कृष्ट साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
(३) 'स्त्रीणां तद्भवे मोक्षः'-- अर्थात् स्त्रियां भी पुरुषों के समान उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं।
उत्तर भारत के निवासियों की ही तरह दक्षिणापथ के निवासियों को भी यापनीय संघ के इन उपदेशों ने बड़ा प्रभावित किया। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है यापनीय संघ की "स्त्रीणां तद्भवे मोक्षः" इस घोषणा ने तो दक्षिण के नारी समाज में धर्म जागरण की एक तीव्र लहर उत्पन्न कर दी। इसका तत्काल सुन्दर परिणाम यह हुआ कि यापनीय संघ दक्षिण का एक शक्तिशाली और लोकप्रिय धर्मसंघ बन गया । कर्णाटक के अतिरिक्त अन्य दक्षिणी प्रान्तों में इस संघ का कितना व्यापक प्रचार-प्रसार हमा, इस सम्बन्ध में यद्यपि निश्चित रूप से तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता किन्तु जैसा कि पहले बताया जा चुका है तमिलनाडु के अकेले बेड़ाल क्षेत्र में एक साध्वी संघ की ५०० साध्वियों के ममूह और उसके प्रतिपक्षी साध्वीमघ की ४०० साध्वियों के समूह - इस प्रकार केवल एक ही क्षेत्र में ६०० की संख्या में साध्वियों और साध्वीसंघों की प्राचार्या करत्तियार की विद्यमानता के उल्लेख को देखकर तो यही अनुमान लगाया जाता है कि किमी
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