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यापनोय परम्परा ]
[ १६९ थी। इसके एक साधु शिष्य का भी इस अभिलेख में उल्लेख है। इसी प्रकार उक्त जिल्द के ५ अन्य अभिलेखों में चिरुपोल्लल की पिच्चै कुरत्ति, मम्मई कुरत्ति, तिरुपरुत्ति कुरत्ति आदि गुरुणियों, संघ की संचालिका गुरुणियों का उल्लेख है ।
इन सब उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि तमिलनाडु में जैन धर्मसंघ में ऐसे स्वतन्त्र संघ भी थे जिनकी सर्व सत्तासम्पन्न संचालिकाएं कुरत्तियार, कुरत्तिगल अथवा कुरत्ति होती थीं। ये कुरत्तियार यापनीय संघ की थीं अथवा किसी अन्य संघ की, इस प्रकार का कोई उल्लेख न होने के कारण यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये अमुक संघ की ही थीं, किन्तु यापनीय संघ ने साधारणतः समग्र स्त्री समाज को और विशेषतः साध्वियों को जो साधनों के समान अधिकार दिये उनसे यही अनुमान लगाया जाता है कि तमिलनाडु में भी ईसा की ८वी हवीं शताब्दी तक यापनीय संघ का बड़ा प्रभाव रहा हो । इस सम्बन्ध में शोधार्थियों से अग्रेत्तर गहन शोध की अपेक्षा है। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता और दक्षिण भारत के ख्यातनामा इतिहासकार श्री पी. बी. देसाई ने इन कुरत्तियार का यापनीय संघ से सम्बन्ध होने की सम्भावना प्रकट करते हुए निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं : -
"The Kurattiyars of the Tamil Country constitute a surprisingly unique class by themselves. According to the conception of the Digambara School women are not entitled to attain Moksha in this life. The Yapaniyas, a well known sect of Jainism in the South and having some common doctri. nes both with Digambaras and Swetambaras, are characteristically distinguished for their view which advocates liberation or Mukti for women in this life "स्त्रीणां तद्भवे मोक्ष : " The factors that contributed to the growth of the institution of lady teachers in the Tamil land on such a large scale are not fully known. This subject requires further study and research.”
यह तो एक सर्वसम्मत तथ्य है कि प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में मानवता के, कर्मयुग के आदि सूत्रधार प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव द्वारा किये गये तीर्थप्रवर्तन-काल से ही स्त्रियां धर्माचरण में पुरुषों से आगे रही हैं। चौबीसों तीर्थकरों के साधनों, साध्वियों, श्रावकों तथा श्राविकानों की जो संख्याए श्वेताम्बर परम्परा के आगमों एवं दिगम्बर परम्परा के पागम तुल्य ग्रन्थों में उल्लिखित हैं, उन पर प्रथम दृष्टिपात से ही यह तथ्य प्रकाश में आ जाता है कि सभी तीर्थंकरों के धर्मसंघों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों ने सक्रिय रूप से धर्माचरण में कई गुना अधिक उत्साह मे, अधिक संख्या में रुचि ली है। श्वेताम्बर परम्परा के प्रागमों के अनुसार तो चौबीसों तीर्थकरों के धर्मसंघ में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए साधुओं तथा साध्वियों में साधुनों की अपेक्षा साध्वियों की संख्या पर्याप्त रूपेण अधिक है।
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