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________________ १६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ वीरा का साध्वीसंघ यापनीय संघ का साध्वीसमूह था। ४०० साध्वियों के जिस समूह के साथ कुरत्तियार कनकवीरा का संघर्ष हुआ, वह अनुमानतः दिगम्बर परम्परा के द्रविड़ संघ का साध्वी समूह होगा। कुरत्तियार कनकवीरा का नाम भी तमिलवासियों के नाम से पूर्णत: भिन्न होने से यह अनुमान किया जा सकता है कि कर्णाटक प्रदेश से यापनीय संघ का यह साध्वीसमूह तमिल प्रदेश में अपनी परम्परा के प्रचार-प्रसार के लिए आया होगा। संभवतः कनकवीरा कुरत्तियार को और उसके साध्वीसमूह को यापनीय संघ के प्रचार-प्रसार में और अपने संघ को लोकप्रिय बनाने में आशातीत सफलता प्राप्त हुई होगी। इसके परिणामस्वरूपं अपने तमिलप्रदेश में अपनी परम्परा से अन्य परम्परा के साध्वीसमह की सफलता एवं उसके बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर द्रविड़ संघ के साध्वीसमूह को सहज ही ईर्ष्या हुई होगी और यह ईर्ष्या ही शनैः-शनैः उग्र रूप धारण कर संघर्ष का रूप बन गई होगी । बहुत सम्भव है तमिल प्रदेश के उस द्रविड़ संघ की साध्वियों ने अपने भक्तअनुयायियों को इस प्रकार का निर्देश दिया हो कि वे न तो उन साध्वियों के उपदेश को सुनें और न ही उन्हें प्राहार आदि का दान दें एवं यापनीय संघ की साध्वियों के सम्मुख उपस्थित हुई उस संकट की घडी में, उनके उपदेशों से प्रभावित हो जो तमिलवासी यापनीय संघ के अनुयायी बने उन्होंने कुरत्तियार कनकवीरा के साध्वीसमूह के रक्षण एवं भरण-पोषण का भार अपने ऊपर लेते हुए उन्हें आश्वस्त किया हो । तमिलनाडु के लिए उस समय यह धार्मिक असहिष्णुता की घटना बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना रही होगी, अतः इसका उल्लेख इस शिलालेख में किया गया प्रतीत होता है। करत्तियार कनकवीरा यापनीय संघ की ही माध्वीप्रमुखा रही होंगी, इस अनुमान की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि साध्वियों को स्वतन्त्र संघ बनाने की स्वतन्त्रता यापनीय संघ के अतिरिक्त अन्य किसी दिगम्बर अथवा श्वेताम्बर संघ ने दी हो, इस प्रकार का एक भी प्राचीन अथवा अर्वाचीन उल्लेख भारत के किमी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हरा है। तमिलनाडु में स्वतन्त्र मंघों की (जिनमें माधुवर्ग और साध्वीवर्ग दोनों ही प्रकार के वर्ग सम्मिलित थे) सर्वाधिकार सम्पन्न प्रमुखा अर्थात् प्राचार्या साध्वियां होती थीं, जिन्हें कुरत्तियार, कुरत्ति अथवा कुरत्तिगल के नाम से अभिहित किया जाता था । तमिलनाडु में इस प्रकार की कुरत्तियार के जो शिलालेख अब तक उपलब्ध हो चुके हैं, जिनका संकलन साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्शन्स वोल्यूम ५.१ में किया गया है, उनमें मे लेख संख्या ३२४ और ३२६ में तिरुच्चारणत्तु कुरत्तिगल का उल्लेख है । इसके शिष्य के रूप में वरगुण के नाम का उल्लेख है, जो सम्भवतः पाण्ड्य राजवंश का सदस्य था। इसी प्रकार लेख संख्या ३२२ और ३२३ में संघ कुरत्तिगल का उल्लेख है, जो सम्भवतः एक स्वतन्त्र साधु-साध्वीसंघ की संचालिका, अधिनायका अथवा प्राचार्या थीं। दक्षिण भारत के शिलालेखों की इसी जिल्द के लेग्व संध्या ३७० में तिरुमल्ल कुरत्ति का उल्लेख है, जो एनाडि कुट्टनन में रहती For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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