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________________ यापनीय परम्परा ] [ १६५ प्राचार्यों ने अनेकानेक युक्तियां दी हैं। "स्त्रीणां न तद्भवे मोक्षः" अपनी इस मान्यता की पुष्टि हेतु कालान्तर में दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में जो ११ गाथाएं प्रक्षिप्त की गई हैं, वे जिज्ञासु विचारकों द्वारा पठनीय एवं मननीय हैं। कतिपय उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा किये गये इस प्रकार के प्रचार से यह स्वाभाविक ही था कि नारीवर्ग के मानस में निराशा तरंगित होती। महिलावर्ग की इस प्रकार की मनोदशा के परिणामस्वरूप जैन धर्मसंघ को किस प्रकार की क्षति हो सकती है, इस रहस्य को यापनीय संघ ने पहचाना । इसके साथ ही साथ यापनीय प्राचार्यों ने इस वास्तविक तथ्य को भी भलीभांति समझ लिया कि स्त्रियों को प्राध्यात्मिक पथ पर, धर्मपथ पर अग्रसर होने के लिए जितना अधिक प्रोत्साहित किया जायगा, उतना ही अधिक धर्मसंघ शक्तिशाली, सुदृढ़ और चिरस्थायी बनेगा। उनकी यह दृढ मान्यता बन गई थी कि धर्म, धार्मिक विचारों, धार्मिक क्रियाओं एवं उनके विविध प्रायोजनों के प्रति अटूट आस्था और प्रगाढ़ रुचि होने के कारण स्त्रियां धर्मसंघ की आधारशिला को एवं धर्म की जड़ों को सुरढ़ करने में और धार्मिक विचारों का प्रचार-प्रसार करने में पुरुष वर्ग की अपेक्षा अत्यधिक सहायक सिद्ध हो सकती हैं। जो धर्मसंघ महिला वर्ग को धर्मभावनाओं को जागृत कर अथवा उसको उभार कर, महिलाओं को धर्म मार्ग पर अग्रसर होते रहने के लिये प्रोत्साहित कर उनका विश्वास प्राप्त कर लेगा, वह धर्म शीघ्र ही सम्पूर्ण समाज का अग्रणी धर्म बन जायगा। इसे सही रूप में यापनीय संघ के प्राचार्यों ने पहिचाना और पहिचानकर श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य सिद्धान्त "स्त्रीणां तद्भवे मोक्षः" का प्रचार प्रारम्भ किया। यापनीय परम्परा के प्राचार्यों, श्रमणों और श्रमणियों ने "स्त्री उसी भव में मोक्ष जा सकती है, इस सिद्धान्त पर बल देते हुए ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में धर्म सभाओं में अपने उपदेशों में कहा : यो खलु इत्थी अजीवो, रण यावि अभव्वा, ण यावि दंसविरोहिणी, गो प्रमाणुसा, णो अरणारिय उप्पत्ती, णो असंखिज्जाउया णो अइकूरमई, णो ण उवसंतमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो अशुद्धबोंदि णो ववसायवज्जिया, यो अपुवकरणविरोहिणी, रणा गवगुरगट्टाणरहिया णो अजोग्गा लद्धीए, गो अकल्लारणभायणं त्ति कहं न उत्तमधम्मसाहिगति ।"' "अर्थात् स्त्री कोई अजीव नहीं। न वह अभव्य है और न दर्शन विरोधिनी है। न स्त्री मानव योनि से भिन्न किसी अन्य योनि की है। वस्तुतः वह मानव म्त्रीमुक्तौ यापनीय तन्त्रप्रमाणं-यथोक्त यापनीय तन्त्रे-"णो बन्नु इत्थी ग्रजीवो.... ।'' ललित विस्त ग, पृ० ४०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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