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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ जैन धर्मसंघ की रक्षा के लिए तथा अपने से भिन्न धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्म के अनुयायी बनाने की आकांक्षा से विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा आयोजित किये जाने वाले आकर्षक जनरंजनकारी धार्मिक अनुष्ठानों, भांति-भांति के प्रांकर्षक धार्मिक प्रायोजनी, विधि-विधानों की ओर प्राकर्षित होते हुए स्वधर्मी बन्धुनों को अपने ही धर्म में स्थिर रखने के उद्देश्य से अन्य तोथिकों से मिलते जुलते नये-नये प्राकर्षक विधि-विधानों, अनुष्ठानों, आयोजनों का आविष्कार करने में यापनीय संघ ने सभी धर्मसंघों को बहुत पीछे रख दिया। अन्यान्य जैनेतर धर्मसंघों ने अपने धर्म के गढ़ के रूप में विशाल मन्दिरों का निर्माण करवाना प्रारम्भ किया और अन्यान्य धर्मावलम्बियों के समान जैन धर्मावलम्बी भी उन धर्म संघों की ओर आकर्षित होने लगे तो यापनीय संघ ने उन जैनेतर संघों द्वारा निर्मापित मन्दिरों एवं मठों से भी प्रति भव्य मन्दिरों, मठों, साधु-साध्वियों के लिए विशाल वसतियों का निर्माण करवाना प्रारम्भ किया। जब अन्य धर्मावलम्बियों ने भौतिक प्रलोभनों के माध्यम से लोकमत को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मन्त्र तन्त्रों, देव-देवियों की साधनामों का सहारा लिया तो यापनीय भी इस दिशा में उन जैनेतर धर्मसंघों से सदा आगे ही रहे। यापनीयों ने भी मन्त्र-तन्त्रों और अनेक प्रकार के अनुष्ठानों तथा सिद्धियों का सहारा लिया। अधिकांश मन्त्र-तन्त्रों, यन्त्रों, पद्मावती, अम्बिका ज्वालामालिनी आदि देवियों के मन्दिरों का निर्माण कराना, ज्वालामालिनी कल्प, पद्मावती कल्प आदि मान्त्रिक अथवा तान्त्रिक कल्पों द्वारा लौकिक सिद्धि के अनुष्ठानों की जनमानस पर छाप जमाना यह सब अधिकांशतः यापनीय संघ की ही प्रत्युत्पन्नमति-सम्पन्न दूरदर्शिता का प्रतिफल था। परिस्थिति के अनुरूप उन्होंने श्रमणधर्म के सिद्धान्तों में यत्किचित् परिवर्तन करना आवश्यक समझा तो वह भी किया। यापनीय संघ के प्राचार्यों ने ज्वालामालिनी देवी के स्वतन्त्र मन्दिर बनवाये, उसकी उपासना के भांति-भांति के अनुष्ठानों, जापों मादि को जैन प्रणाली का पुट देकर भौतिक सिद्धियों की प्राप्ति के इच्छुक जनमत को जैन धर्म की ओर आकर्षित किया। जैन धर्म के परम्परागत दुश्चर कठोर नियमों में प्रावश्यक परिवर्तन कर उनमें पर्याप्त ढील दी। अनेक धार्मिक नियमों को उन्होंने सरल बना दिया । उदाहरण स्वरूप इस सम्बन्ध में सुदत्त मुनि द्वारा सल् को दिया गया “पोय सल्"-- इस सिंह को मारो-- यह आदेश ही पर्याप्त है। जिस समय दक्षिण के कर्णाटक प्रान्त में दिगम्बर परम्परा का पर्याप्त वर्चस्व था, उन्होंने बड़ी कड़ाई से इस सिद्धान्त का प्रचार किया कि स्त्रियाँ उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकतीं । मुक्ति की राह में वस्त्र सबसे बड़ा बाधक परिग्रह है, वस्त्रों का पूर्णतः परित्याग कर पूर्ण अपरिग्रह नग्नता स्वीकार किये बिना सिद्धि कभी प्राप्त की ही नहीं जा सकती। अपनी इस मान्यता पर अधिकाधिक बल देते हुए दिगम्बर परम्परा के कतिपय प्राचार्यों ने यहां तक कहना और उपदेश देना अथवा प्रचार करना प्रारभ कर दिया कि स्त्रियों को श्रमणधर्म की दीक्षा न दी जाय । “स्त्रीणां न तद्भवे मोक्षः" अपनी इस मान्यता की पुष्टि में ईसा की तीसरी-चौथो शताब्दी से उत्तरवर्ती कतिपय
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