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________________ यापनीय परम्परा ] काल के उपरिवणित अभिलेखों से यही प्रकट होता है कि यापनीय संघ ईसा की चौथी शताब्दी से दशवीं-ग्यारवीं शताब्दी तक बड़ा ही राजमान्य संघ रहा है। कदम्ब, चालुक्य, गंग, राष्ट्रकूट, रट्ट आदि राजवंशों के राजाओं ने अपने-अपने शासनकाल में इस संघ के विभिन्न गणों, गच्छों के प्राचार्यों तथा साधुओं को ग्रामदान, भमिदान आदि के रूप में सहयोग देकर जैन धर्मसंघ को संरक्षण प्रदान किया। लगभग छ:-सात शताब्दियों तक राजमान्य रहने के कारण यापनीय संघ की गणना मध्ययुग में कर्णाटक के प्रमुख एवं शक्तिशाली धर्म संघ के रूप में की जाती रही। . यापनीय संघ के गणों अथवा गच्छों से सम्बन्ध रखने वाले जिन ३१ अभिलेखों का उल्लेख ऊपर किया गया है, वे सभी अभिलेख संस्कृत तथा कन्नड़ भाषा में हैं, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यापनीय संघ का सर्वाधिक वर्चस्व कर्णाटक प्रदेश और उसके आस-पास के क्षेत्रों में ही रहा। कागवाड़ जैन मन्दिर के भौंहरे में विद्यमान शक संवत् १३१६ तदनुसार वि. सं. १४५१-वीर नि.सं. १९२१ के शिलालेख में यापनीय प्राचार्य नेमिचन्द्र को 'तुलुवरराज्यस्थापनाचार्य' की उपाधि से विभूषित किया गया है, इससे यह प्रमाणित होता है कि विक्रम की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध से लेकर १५वीं शताब्दी तक अर्थात् लगभग ग्यारह सौ-बारह सौ वर्षों तक यापनीय संघ राजमान्य संघ के रूप में प्रतिष्ठित रहा। .. यापनीय संघ का प्रादुर्भाव कब हुआ, इसका संस्थापक प्रथम प्राचार्य कौन था, इसका किन परिस्थितियों में पृथक् इकाई के रूप में गठन किया गया और किस स्थान पर इसका गठन किया गया, इन सब प्रश्नों का समुचित उत्तर पूष्ट प्रमाणों के अभाव में अद्यावधि नहीं दिया जा सका है। इस स्थिति में भी इस संघ के सम्बन्ध में आज तक जितने अभिलेख एवं उल्लेख एकत्रित किये जा सके हैं, उनके आधार पर यह तो कहा ही जा सकता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर विभेद के उत्पन्न होने के समय अर्थात् वीर नि. सं. ६०६ के लगभग अथवा उसके एक दो दशक पश्चात् की अवधि के अन्दर-अन्दर ही इस संघ का पृथक् इकाई के रूप में गठन किया गया हो । प्राप्त उल्लेखों पर गहराई से विचार करने पर यह भी कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर के धर्मसंध के परम्परागत पुरातन वर्चस्व को यथावत् बनाये रखने तथा इसकी शक्ति को किंचित्मात्र भी विघटित न होने देने के सदुद्देश्य से श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों संघों के वीच की कड़ी के रूप में इस यापनीय संघ का गठन किया गया । बौद्ध, शैव, वैष्णव, आजीवक आदि अन्यान्य धर्मसंघों द्वारा समय-समय पर करवाये जाने वाले सामूहिक धर्मपरिवर्तनों के परिणामस्वरूप होने वाली हानि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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