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भट्टारक परम्परा ]
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और दिगम्बरत्व के कठोर नियमों को पुनः प्रतिष्ठापित किया । भट्टारक परम्परा और शिथिलाचार के विरुद्ध किये गये विरोध के परिणामस्वरूप ही इनके उत्तरवर्ती विद्वान् भट्टारक ग्रंथकारों ने प्राचार्य कुन्दकुन्द का धवला, जय धवला जैसे दिगम्बर परम्परा के आगम-तुल्य महान् ग्रन्थों में कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, स्वयं श्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी अपने साक्षात् गुरु का नामोल्लेख तक न करते हुए अपने आपको भद्रबाहु का शिष्य बताया है ।
४. कौण्ड कुन्दान्वय -- यह परम्परा केवल प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा की बोधक नहीं । भट्टारक, यापनीय, दिगम्बर आदि कतिपय परम्पराम्रों के मध्ययुगीन केन्द्र स्थल कोण्ड - कुण्ड नामक स्थान से भी 'कौण्ड -कुन्दान्वय' शब्द का सम्बन्ध रहा है ।
५. आज के युग में भट्टारक परम्परा जिस रूप में विद्यमान है, इसको प्राचार्य माघनन्दि ने कोल्हापुर ( क्षुल्लकपुर ) नरेश गण्डरादित्य और उनके सामन्त सेनापति निम्बदेव की सहायता से ई० सन् १९१० से ११२० के बीच के किसी समय में जन्म दिया ।
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