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________________ १८८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ उपरिवणित बातों पर विचार करने से एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो प्रकाश में आता है, वह यह है कि मध्य युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इन तीनों ही संघों की भट्टारक परम्पराए पृथक्-पृथक् रूप से अस्तित्व में रहीं। उनमें से यापनीय संघ की भट्टारक परम्परा उस संघ के विलुप्त होने के साथ ही समाप्त हो गई । श्वेताम्बर संघ की भट्टारक परम्परा अपने उद्भव काल से अल्प समय पश्चात् ही श्री पूज्य परम्परा और कालान्तर में यतिपरम्परा के रूप में परिवर्तित हो गई, जो वर्तमान काल में भी विद्यमान है। मध्य युग में उत्तर भारत में यति परम्परा का सर्वाधिक वर्चस्व एवं प्राबल्य रहा । इस प्रकार भट्टारक परम्परा के नाम से जो परम्परा अाज विद्यमान है, वह केवल दिगम्बर आम्नाय की भट्टारक परम्परा ही है । इस प्रकार भट्टारक परम्परा का स्वरूप वीर निर्वाण की सातवीं-आठवीं शताब्दी में १६वीं शताब्दी तक समय-समय पर मोटे रूप में तीन प्रकार का रहा। वीर निर्वाण की १०वीं शताब्दी से इस परम्परा का वर्चस्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा और वीर निर्वाण की सोलहवीं शताब्दी के पश्चात् तो मुख्यत: दक्षिण में और सामान्य रूप से भारत के अनेक प्रान्तों में इस परम्परा का पर्याप्त वर्चस्व शताब्दियों तक छाया सा रहा। निष्कर्ष :---प्राचीन शिलालेखों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों, चैत्यवासी, यापनीय, भट्टारक आदि परम्पराओं द्वारा समय-समय पर किये गये कार्यों के उल्लेखों एवं अभिनव शोध के परिणामस्वरूप प्राप्त मध्ययुगीन जैन वांग्मय और मुख्यत: 'जैनाचार्य परम्परा महिमा' नामक अप्रकाशित पुस्तक के आधार पर इस प्रकरण में विस्तार पूर्वक जो प्रकाश डाला गया है, उसके निष्कर्ष के रूप में निम्नलिखित नवीन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रतिष्ठापित किया जा सकता है : १. श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इन पृथक-पृथक तीन संघों के रूप में भगवान् महावीर के धर्मसंघ के विभक्त होने के समय ही जैन धर्म संघ में भट्टारक परम्परा का एक प्रकार से बीजारोपण हो चुका था। २. द्वितीय भद्रबाहु · नैमित्तिक (दीर नि० सं० १०३२) के प्रशिष्य माघनन्दि ने भट्टारक परम्परा को एक शक्तिशाली संघ का रूप दिया। आचार्य माघनन्दि और उनके शिष्य आचार्य जिनचन्द्र के प्राचार्य काल में भट्टारक-परम्परा का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । ३. आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भट्टारक परम्परा द्वारा प्रतिष्ठापित मान्यताओं और शिथिलाचार का डटकर विरोध किया । वे भट्टारक परम्परा में दीक्षित हए थे किन्तु उन्होंने अपने गुरु जिनचन्द्र और भट्टारक परम्परा का परित्याग कर अभिनव धर्म क्रान्ति की। उन्होंने अध्यात्मपरक उपासना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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