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भट्टारक परम्परा !
। १८७
नं. ३२४ (A. R. No. 35 of 1894)
In the same place 1. श्री कोत्तूर नाथु2. सिरु प्रोल्लघली3. सिद्दाइअंग कोरिपाइ 4. साथि तिरुसार न5. थुक कुरत्तिगल से6. वित्त पडिमम्
नं. ३२६ (A. R. No. 37 of 1894)
In the same place 1. श्री कोत्तूर नात्तु पे2. रोम्पेरू र कु3. व्यंग कामनै साथि4. तिरुचर नत्थु5. क कुरुत्तिगल चेई
6. त्त पडिमम्
उपर्युद्ध त अभिलेखों में कुरुत्तिगल शब्द उल्लिखित है, उसका संस्कृत प्रारूप है, "आदरणीया गुरुणी" और "चेइत्त पडिम" अथवा "सेवित पडिम" शब्द जैन आगमों में उल्लिखित "प्रतिमाधारी-अर्थात साधक की विशेष योग्यता 'प्रतिमा' से सम्पन्न ।"
दक्षिण भारत के अभिलेख (मूल) की जिल्द संख्या ५ में ऊपरिलिग्वित अभिलेखों के समान बहुत बड़ी संख्या में अभिलेख हैं। उन सब अभिलेखों का सूक्ष्म शोधपरक दृष्टि से अध्ययन परिशीलन परमावश्यक है। इन सब अभिलेखों के ममीचीन अध्ययन निदिध्यासन से कुरत्तिगल तथा चेइत्त (सेवित) पडिम और साध्वीसंघ के सम्बन्ध में किसी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य के प्रकाश में आने की संभावना है।
इस अध्याय में विस्तार के साथ जिन तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है, उन से यह तो सुनिश्चित रूप से सिद्ध हो जाता है कि भट्टारक परम्परा पर, आज से पांच-छः शताब्दी पूर्व ही विलुप्त हई चैत्यवासी परम्परा का और प्रमुख रूप से यापनीय परम्परा का प्रभाव पड़ा। यापनीयों पर श्वेताम्बर परम्परा का पर्याप्त प्रभाव रहा है, यह एक सर्वसम्मत तथ्य है। इस दृष्टि से परोक्ष रूपेण श्वेताम्बर परम्परा का प्रभाव भी भट्टारक परम्परा पर रहा ।
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