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________________ १८४ | [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ ६. लेख सं. ३७१ में मम्मइ कुरत्ति और उसकी साध्वी शिष्या अरट्टनेमि कुरती का उल्लेख है । ७. लेख सं. ३६४ में मिलूर कुरत्ति का उल्लेख है, जो कि पैरूर कुरत्ति ( पैरूर की गुरुणी प्राचार्या) प्रथवा भट्टारिका की शिष्या और करैकान नाडु स्थित पिडा कुडी निवासी मिगैकुमान की पुत्री थी । ८. तिरुचारणम् पर्वत की पट्टिनी भट्टार के शिष्य वर्गुण द्वारा एक. शिलाचित्र उट्टकित करने का तिरुचारणार पर्वत के गुहाचित्रों में एक उल्लेख विद्यमान है । इन सब शिलालेखों एवं गुहाचित्रों प्रादि से एक प्रत्यन्त भाश्चर्यकारी तथ्य प्रकाश में आता है कि तामिलनाडु में - सुदूर दक्षिण में प्राचीन काल में जैनों के सुदृढ़ केन्द्र थे और साध्वियों के ऐसे स्वतन्त्र संघ थे जिनकी भट्टारक, आचार्यं प्रथवा सर्वसत्ता सम्पन्न संचालिकाएं साध्वियां ही थीं । ये साध्वियों के संघ श्वेताम्बर अथवा दिगम्बर परम्परा के हों यह तो कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि इन दोनों संघों में परम्परा से, प्रारम्भ काल से लेकर वर्तमान काल तक साध्वियों के समूहों को साधु प्राचार्यों के ही अधीन रखा जाता रहा है । इन दोनों संघों में साध्वियों को आचार्य पद पर अधिष्ठित करने प्रथवा भट्टारिका पद प्रदान करने की किसी भी काल में परम्परा नहीं रही । इन दोनों संघों के समग्र ग्रागमिक एवं भागमेतर साहित्य के प्रालोडन पर भी इस प्रकार का कहीं कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं होता, जहां किसी साध्वी को ऐसे सर्वाधिकार सम्पन्न एवं स्वतन्त्र प्राधिकारिक पदों पर आसीन किया गया हो । इन सब तथ्यों पर तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर प्रत्येक मनीषी इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि उपरिवरिणत भट्टारिकाएं, पट्टिनियाँ, कुरत्तियाँ, संघ संचालिकाएं - साध्वी मुख्याएं श्वेताम्बर मौर दिगम्बर इन दोनों ही संघों से भिन्न किसी अन्य ही जैन संघ की श्रमणी प्रमुखाएं होंगीं । सम्पूर्ण जैन वाङमय के प्रालोडन एवं निदिध्यासन से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्त्रियों को पुरुषों के समान इस प्रकार का साधिकार सम्मान देने वाला अन्य कोई धर्मसंघ नहीं अपितु यापनीय संघ ही हो सकता है और वे भट्टारिकाएं पट्टिनियाँ, जिनका कि उल्लेख उपर्युल्लिखित शिलालेखों में उपलब्ध होता है, यापनीय संघ की प्रथवा यापनीय संघ के द्वारा प्रोत्साहित साध्वी समूह की ही हो सकती हैं । कर्णाटक का इतिहास साक्षी है कि यापनीय संघ ने स्त्रियों को सर्वाधिक प्रोत्साहन दिया । दक्षिरणापथ में दिगम्बर संघ का उसी प्रकार का वर्चस्व रहा जिस प्रकार का कि उत्तरापथ में श्वेताम्बर संघ का रहा । दिगम्बर संघ ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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