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भट्टारक परम्परा ]
[ १८३ पश्चात् भी दोनों धर्म संघों में आज तक एक भी ऐसा उदाहरण उपलब्ध नहीं होता कि साध्वियों का कोई स्वतन्त्र संघ रहा हो। किसो साध्वी को कभी साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी सम्पूर्ण संघ के सर्वोच्च पद-प्राचार्य पद पर अथवा भट्टारक पद पर अधिष्ठित किया गया हो-इस प्रकार का भी कोई उदाहरण नहीं मिलता। न इस प्रकार का ही कोई उदाहरण मिलता है कि इन दोनों परम्परामों में किसी साध्वी अथवा साध्वी प्रमुखा ने किसी पुरुष को साधु धर्म में दीक्षित कर अपना शिष्य बनाया हो । तीर्थ प्रवर्तन काल से लेकर आज तक यही परम्परा चली मा रही है कि चतुर्विध संघ साधु वर्ग में से ही किसी योग्यतम साधु को प्राचार्य पद पर आसीन करता है और उस परम्परा के सभी साधु और सभी साध्वियां संघ द्वारा नियुक्त किये गये प्राचार्य के अधीन रहती हैं। साधुवर्ग और साध्वी वर्ग के लिये उस प्राचार्य की प्राज्ञा सर्वोपरि और सदा शिरोधार्य रहती है। किन्तु सुन्दर पाण्ड्य से पूर्व मदुरा के पाण्ड्य शासन काल और उसके पूर्व तथा उत्तरवर्ती काल के शिलालेखों में साध्वियों के स्वतन्त्र संघ, भट्टारक साध्वियों, पट्टिनी कुरत्तियार (पट्टधर अथवा प्राचार्य गुरुणी), तिरुमले कुरत्ती (गुरुणी) के उल्लेख देख कर और उनके साधु शिष्यों को देख कर आश्चर्य का पारावार नहीं रहता। उनमें से कुछ का उल्लेख यहां किया जा रहा है
१. South Indian Inscriptions Vol.v के लेख सं. ३७० में तिरुमले कुरत्ती (तिरुमले के जैन संघ को गुरुणी) का और उसके एक एनाडि कुट्टनन नामक पुरुष साधु का उल्लेख है। इस लेख से यह तथ्य प्रकाश में प्राता है कि तिरुमल को वह गुरुणी एक स्वतन्त्र चतुर्विध संघ की प्रधिष्ठाता प्राचार्या अथवा भट्टारिका थीं और उनके श्रमण-श्रमणियों के संघ में साधु (पुरुष साधु) भी शिष्य रूप में उनके प्राज्ञानुवर्ती थे।
२. इसी जिल्द के लेख संख्या ३७२ में तिरुपरत्ती कुरत्ती का उल्लेख है जो पट्टिनी भट्टार (प्रमुख स्त्री भट्टारिका) की शिष्या थी।
३. इसी वोल्यूम के लेख सं. ३२२-३२३ में संग कुरत्तिगल (संघ गुरुणी) का और उसकी साध्वी शिष्या शिरिविषय कुरुत्तियार का उल्लेख है । वह एक स्वतन्त्र संघ की प्राचार्या, अधिष्ठात्री अथवा अध्यक्षा थीं।
४. लेख सं. (इसी वोल्यूम के) ३५५-५६ में नालकूर अमलनेमी (साध्वी) मट्टार की शिष्या नालकूर कुरत्ती (गुरुणी भट्टार) का और उसकी एक शिष्या नाट्टिकप्पटारार (नाट्यक भट्टार) का उल्लेख है।
५. लेख सं. ३२४-३२६ में तिरुचारणत्तु कुरत्तिगल (श्री चारण पर्वत की पूज्य अध्यक्षा गुरुणी) का उल्लेख है।
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