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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
भट्टारक परम्परा के अभिनव रूप से उद्भव, उत्कर्ष आदि के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश डालने वाले" जैनाचार्य - परम्परा महिमा" नामक हाल ही में प्रकाश में प्राये ग्रन्थ के उपर्युद्धत उद्धरणों से निर्विवाद रूपेण यह सिद्ध होता है कि गोमटेश्वर (बाहुबली) की आश्चर्यकारी मूर्ति के निर्मापयिता एवं प्रतिष्ठापक चामुण्ड राय के गुरु प्राचार्य नेमिचन्द्र बेल्गुल भट्टारक पीठ के श्राचार्य रहे, उन्होंने श्रवण
गुल तीर्थ को लोक प्रसिद्ध बनाया । 'अजित तीर्थकर पुरारण तिलकम्' के रचनाकार कन्नड़ भाषा के महाकवि रन के उल्लेखानुसार प्राचार्य नेमिचन्द्र कारणूर गरण के आचार्य थे । कारणूर गण वस्तुतः यापनीय परम्परा का, यापनीय संघ का गरण था, यह भी उपर्युल्लिखित प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों से सिद्ध हो चुका है ।
इन सब प्रमारणों से यही निष्कर्ष निकलता है कि भट्टारक परम्परा एक समय यापनीय परम्परा के श्राचार्यों के संचालन में भी रही और उसके परिणामस्वरूप यापनीय परम्परा का प्रभाव भी भट्टारक परम्परा पर रहा ।
२. यहां ऐतिहासिक दृष्टि से प्रात्यन्तिक महत्व का तथ्य भी प्रत्येक मनीषी के लिए मननीय है कि चैत्यवासी परम्परा के जन्म काल से लेकर यपनीय परम्परा के उत्कर्ष काल तक विभिन्न जैन संघों द्वारा केवल तीर्थंकरों की मूर्तियों का ही निर्माण करवाया जाता रहा । तीर्थंकरों की मूर्तियों के साथ-साथ उनके यक्ष- यक्षणियों की मूर्तियों की स्थापना भी तीर्थंकरों के मन्दिरों में की जाने लगी । तीर्थ करों के अतिरिक्त अन्य मुक्तात्माओं अथवा देव देवियों के पृथक् रूप से मन्दिर बनाने की अथवा उनकी मूर्तियों की प्रतिष्ठापना की परम्परा नहीं रही । यापनीय परम्परा के उत्कर्ष काल में ज्वालामालिनि, पद्मावती आदि देवियों की पृथक् रूपेण मूर्तियां बनाई जाने लगीं, उनके पृथक् (स्वतन्त्र) मन्दिरों का निर्माण भी प्रारम्भ हुआ । इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए विचार करने पर इस बात की पुष्टि होती है कि श्रवरण बेल्गुल में बाहुबली की मूर्ति को प्रतिष्ठापना में यापनीय परम्परा का भी प्रभाव रहा है ।'
मट्टारक पद पर साध्वियां
तीर्थ करों द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन काल से लेकर जैन-धर्म संघ के श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो विभागों में विभाजन के समय तक और इस प्रकार के विभाजन के
Since a temple had been dedicated in honour of this deity ir this tract and provision made for her worship.
The preceptors of the Yapaniya sect seem to have played a substantial role in the spread. of the Jvalini Cult.
.... We may recall here the teachers of the Yapaniya order is the Sedan and Navalgund areas; who were versed in the occult lore and votaries of the deity Jvalamalini.
-Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs
-by P. B. Desai Page 173
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