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________________ १८० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ अजित तीर्थंकर पुराण तिलकम् के रचयिता महाकवि रन्न (ई० सन् ६६३) ने अपनी इस महान् कृति के बारहवें अध्याय के पद्य संख्या २१ में प्राचार्य नेमिचन्द्र का परिचय देते हुए लिखा है : "श्री नेमिचन्द्र मुनिगल क्राणूरगण तिलकरवर शिष्यर सद्विद्या निलयण तानोदिसे कुसलनादन अण्णिगदेवम् ।” कन्नड़ भाषा के महाकवि रन्न के इस उल्लेख की पुष्टि कल्लूरगुडु-शिमोगा परगना के सिद्ध श्वर मन्दिर की पूर्व दिशा में पड़े एक शिलालेख से भी होती है कि मेष पाषाण गच्छ, क्राणुरगण का ही गच्छ था। इस शिला लेख में क्राणूरगण के आचार्य सिंहनन्दि को जैन धर्म के कट्टर अनुयायी-प्रबल पोषक एवं प्रारम्भ से अन्त तक जैन धर्म का पालन करने वाले, जैन धर्म को पूर्णरूपेण संरक्षण देने वाले गंग राजवंश का संस्थापक बताते हुए कारगरगरण मेषपाषाण गच्छ के १३ प्राचार्यों की पट्टावली भी दी गई है। ईसा की चौथी शताब्दी से दशवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक संगठित, प्रभावशाली और राज्यमान्य रहे यापनीय संघ को कदम्ब, चालुक्य, गंग, राष्ट्रकूट, रट्ट आदि राजाओं का राज्याश्रय प्राप्त रहा। कारगरगरण यापनीय संघ का ही गण था। इसके मेष पाषाण गच्छ और तिन्त्रिणीक गच्छ-ये दो गच्छ बड़े ही प्रसिद्ध गच्छ थे। यापनीय संघ के श्रीमूल मूलगण, पुनाग वृक्ष मूलगरण, कनकोपलगण, कुमुदी (कौमुदी) गण, सूरस्थगरण, मडुव अथवा कोटि मडुव गण, वण्डियूरगण आदि अनेक गण थे । यापनीय संघ के इन गणों और गच्छों के अनेक शिलालेख स्थान-स्थान पर उपलब्ध होते हैं। ऐसी स्थिति में क्राणूर गण को यापनीय संघ का गरण मानने में किसी प्रकार की शंका के लिए कोई अवकाश ही नहीं रह जाता। दिगम्बर परम्परा के शोधप्रिय विद्वान् श्री गुलाबचन्द्र चौधरी ने कारगर गरण को यापनीय संघ का गरण सिद्ध करते हुए अपना अभिमत व्यक्त किया है :मेष पाषाण का अर्थ है मेषों के बैठने का पाषाण। ....... तिन्त्रिणीक एक वृक्ष का नाम है। ये पाषाणान्त और वृक्षपरक नाम इस गण के यापनीय संघ के साथ पूर्व सम्बन्ध की स्मृति दिलाते हैं । १ लेख संख्या २७७, जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ पृष्ठ ४०८-४२६ .२ लेख संख्या २१६, २६७, २७७, २६०, ३५३-क्राणर गण का मेष पाषाण गच्छ, लेख संख्या २०६, २६३, ३१३, ३७७, ५००, ३८६, ४०८, ४३१, ४५६, ५८२ --जैन शिलालेख संग्रह 3 जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३ को प्रस्तावना. पृष्ठ ५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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