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________________ भट्टारक परम्परा ] । १७७ ने ग्रामदान, भूमिदान, सम्पत्तिदान आदि के रूप में उन भट्टारकों, भट्टारक पीठों, उनके द्वारा संचालित विद्यालयों, संस्थानों आदि को मुक्तहस्त से आर्थिक सहायता प्रदान की। राजाओं के समान ही छत्र, चामर, सिंहासन, रथ, शिविका, दास, दासी, भूमि-भवन आदि चल-अचल सम्पत्ति और विपुल वैभव के धनी भट्टारक अपने-अपने पीठ से विद्या के प्रसार के साथ धार्मिक शासक के रूप में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। उन भट्रारक पीठों द्वारा संचालित विद्यापीठों में शिक्षा प्राप्त स्नातकों ने धर्म प्रचार के क्षेत्र के समान ही साहित्य निर्माण के क्षेत्र में भी अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। जैन धर्म के मूल स्वरूप में श्रमणों के शास्त्रीय मूल विशुद्ध स्वरूप में विकृतियों के सूत्रपात्र के लिए उत्तरदायी होते हुए भी भट्टारक परम्परा द्वारा किये गये इन सब कार्यों का लेखा-जोखा करने के पश्चात् यदि यह कहा जाय कि एक प्रकार के उस संक्रान्तिकाल में भट्टारक परम्परा ने जैन धर्म को एक जीवित धर्म के रूप में बनाये रखने में बड़ा ही श्लाघनीय कार्य किया, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भट्टारक परम्परा-अनेक परम्परामों का संगम प्रारम्भिक मध्य युग में भट्टारक परम्परा के श्वेताम्बर (संघ की भट्टारक परम्परा) और दिगम्बर (संघ की परम्परा) ये दो भेद तो स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं । श्वेताम्बर संघ की भट्टारक परम्परा कालान्तर में श्रीपूज्य परम्परा के नाम से प्रसिद्ध हो गई। इस प्रकार केवल दिगम्बर संघ की भट्टारक परम्परा ही भट्टारक परम्परा के नाम से अभिहित किये जाने तथा उसका और कोई दूसरा भेद अवशिष्ट न रह जाने के कारण केवल एक वही भट्टारक परम्परा दिगम्बर परम्परा के अंग के रूप में समझी जाने लगी। प्रसिद्ध विद्वान् दलसुख भाई मालवरिणया का मत है कि श्वेताम्बरों में श्रीपूज्य की अपेक्षा यति परम्परा कहना अधिक उपयुक्त होगा। यह सब कुछ होते हुए भी प्राचीन शिलालेखों से यह अनुमान किया जाता है कि आज भट्टारक परम्परा का रूप है, वह वस्तुतः पूर्वकाल में समय-समय पर चैत्यवासी, यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर इन चारों ही परम्पराओं की कतिपय विभिन्न मान्यताओं का न्यूनाधिक संगम रहा है । चैत्यवासी परम्परा का प्रभाव ---अपने जन्मकाल में भट्टारक परम्परा ने चैत्यवासी परम्परा की प्रायः सभी प्रमुख मान्यताओं को अपनाया । दिगम्बर परम्परा द्वारा साधु के लिए अनिवार्य माने गये नग्नता के सिद्धान्त का परित्याग कर चैत्यवासी परम्परा के समान अपनी परम्परा के साधुओं के लिए सवस्त्र रहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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