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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
से उपलब्ध हए शिलालेखों से ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से ई. सन् १९४३ के पहले तक का अनुमानित किया जा सकता है। क्योंकि तेरिदाल के ई. सन् १.१२३-२४ के शिलालेख में तेरिदाल में नेमिनाथ-मन्दिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर माधनन्दि के साथ इन दोनों का उल्लेख है । कोल्हापुर के शुक्रवारी मुख्यद्वार के समीप से उपलब्ध हुए ई. सन् ११४३ के शिलालेख में दानदाता के रूप में गण्डरादित्य के स्थान पर उसके पुत्र महाराजा विजयादित्य का उल्लेख है । इससे गण्डरादित्य और निम्बदेव का समय ई. सन् ११२३ से ११४३ के बीच का तो पूर्णरूपेण सुनिश्चित ही है। .
इन सब पुरातात्विक साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्रानुमानिक रूपेण यह सिद्धप्रायः हो जाता है कि प्राचार्य माघनन्दि, महाराजा गण्डरादित्य और महासामन्त निम्बदेव की अभिसन्धि के परिणामस्वरूप जिन ७७० किशोरों को सवस्त्र श्रमण के रूप में दीक्षित कर उन्हें उच्चकोटि का शिक्षण दे, उनमें से योग्यतम मुनियों को अनुक्रमश: मुख्य भट्टारक पीठ तथा विभिन्न प्रदेशों में नवसंस्थापित पच्चीस (२५) भट्टारक पीठों के भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित अधिष्ठित किये जाने की यह प्रात्यन्तिक ऐतिहासिक महत्त्व की घटना ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से बारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक के बीच के किसी समय में घटित हुई।
उच्च कोटि का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए उन ७७० विद्वान् एवं पूर्ण यौवन सम्पन्न श्रमणों ने भारत के विभिन्न प्रदेशों में शंकराचार्य के पीठों के अनुरूप अभिनव रूपेण संस्थापित पच्चीस भद्रारक पीठों के माध्यम से जैनधर्म का अदम्य उत्साह और पूरे वेग के साथ प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया। ये भट्रारक पीठ देश के विभिन्न प्रदेशों के ऐसे मध्यवर्ती महत्वपूर्ण स्थानों में संस्थापित किये गये, जहां से उस प्रदेश की चारों दिशाओं में अवस्थित सभी ग्रामों एवं नगरों में धर्म प्रचार कार्य का सुचारु रूपेण संचालन-संरक्षण-संवर्द्धन एवं निरीक्षण किया जा सकता था।
उन पच्चीसों भट्टारक पीठों के पीठाधीश भट्टारकों एवं उनके पाजानुवर्ती लगभग साढ़े सात सौ विद्वान् एवं युवक श्रमणों ने उन-उन प्रदेशों के राजाओं, मामन्तों, राज्याधिकारियों एवं श्रीमन्तों के सहयोग से अतुल उत्साह एवं प्रगाढ़ नष्ठा के साथ जैन धर्म का एवं अपनी सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ किया। उन भट्टारकों और उनके अधीनस्थ विशाल श्रमण समूह के सामूहिक प्रयास एवं राज्याश्रय के परिणामस्वरूप प्रजा के सभी वर्गों से प्राप्त सहयोग का द्रुतगति से
सा प्रभाव हा कि ईसा की १२ वीं शताब्दी में भट्टारक परम्परा एक देशव्यापी मुहद धर्मसंगठन के रूप में उभर आई। राजपरिवारों और सभी वर्गों के श्रीमन्तों
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