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________________ भट्टारक परम्परा । [ १७५ प्राचीन अभिलेखा से विस्तृत विवरण तैयार किया जाय तो हजारों पृष्ठ की पुस्तक भी अपर्याप्त रहेगी । इस प्रकार दान ग्रहण करने वाले मठों, मन्दिरों एवं वसदियों में नियत निवास करने और स्वर्ण सिंहासन, छत्र-चामरादि का उपभोग करने वाले भट्टारक परम्परा के प्राचार्यों और गिरि-गुहारों में साधनापूर्ण जीवन जीने वाले निष्परिग्रही आचार्यों को एक ही परम्परा का मानना वस्तुतः उन निष्परिग्रही प्राचार्यों के साथ अन्याय होगा। प्राचार्य माघनन्दि का समय उपलब्ध शिलालेखों में सर्वप्रथम प्राचार्य माघनन्दि का एक प्रख्यात एव समर्थ मण्डलाचार्य के रूप में सांगली क्षेत्र के तेरदाल नगर के भगवान् नेमिनाथ के मन्दिर में रद्रवंशीय मुख्य माण्डलिक गोंक द्वारा दिये गये भूमिदान के शिलालेख में अंकित है। इस मन्दिर के निर्माण के पश्चात् इसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर रट्टवंशीय राजा कार्तवीर्य द्वितीय और कोल्हापुर के लोक विश्रत मण्डलाचार्य माघनन्दि को विशेष रूप से तेरदाल में आमन्त्रित किया गया था और वे दोनों ही उक्त शिलालेख के उल्लेखानुसार उस प्रतिष्ठा-महोत्सव के समय तेरदाल में उपस्थित हुए थे। इस शिलालेख पर वर्ष विक्रम सं. ११८० तदनुसार ई. सन् ११२३-२४ अकित है । इससे सिद्ध होता है कि प्राचार्य माघनन्दि की कीति ईसा को १२वीं शताब्दी के प्रारम्भ से पूर्व ११वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में ही फैल चुकी थी। उस समय वे कोल्हापुर की रूपनारायण वसदि के अधिष्ठाता और कोल्हापुर राज्य के साथ-साथ उसके पास-पास के विशाल क्षेत्र के मण्डलाचार्य अर्थात् सत्तासम्पन्न प्रभावशाली प्राचार्य थे। रूप नारायण वसदि का निर्माण कोल्हापुर के शिलाहार वंशीय राजा गण्डरादित्य के महा सामन्त निम्बदेव ने तेरदाल में गोंक द्वारा निर्मापित नेमिनाथ के मन्दिर से पर्याप्त समय पूर्व करवाया था। रूपनारायण वसदि के निर्माण के पश्चात् निम्बदेव ने कोल्हापुर के कवड़ेगोल्ला बाजार में भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर भी बनवाया, इस प्रकार का उल्लेख कोल्हापुर के शुक्रवारी दरवाजे के पास मिले एक शिलालेख में है। इस शिलालेख में इस मन्दिर की सर्वांगीण मुव्यवस्था के लिये व्यापारियों के "अय्यावले ५००" नामक महासंघ ने अपने व्यापार को दैनन्दिन प्राय के ग्रंश का दान वि. सं. ११६२ में सदा के लिये रूपनारायण वसदि के तत्कालीन अधिष्ठाता आचार्य श्रतकोति को दिया जोकि मण्डलाचार्य माघनन्दि के शिष्य थे। उपर्यक्त दोनों शिलालेखों की तिथियों के सम्बन्ध में विचार करने पर विक्रम सं. ११८० तक प्राचार्य माघनन्दि की विद्यमानता और वि. सं. ११६२ से पूर्व उनका स्वर्गगमन अनुमानित किया जा सकता है । __ कोल्हापुर के शिलाहारवंशीय महाराजा गण्डरादित्य और उनके महामामन्त मेनापति निम्बदेव का समय भी कोल्हापुर एवं उसके पास-पास के तेरिदाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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