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________________ १७४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ का प्रशिक्षण दे कर भारत के विभिन्न भागों में २५ भट्टारक पीठ (प्राचार्य पीठ) स्थापित कर जैन धर्म के प्रचार-प्रसार और भट्रारक परम्परा के विस्तार के लिये देश के कोने-कोने में भेजा। माघनन्दि द्वारा बड़े पैमाने पर किये गये उस देशव्यापी सामूहिक अभियान के परिणामस्वरूप मध्य युग में भट्टारक परम्परा एक बहुजन सम्मत सबल संगठन बन गई और देश के प्रति विशाल भू-भाग पर इसका उल्लेखनीय वर्चस्व छा गया। इतिहास के विद्वानों, शोधाथियों एवं इतिहास में अभिरुचि रखने वालों के लिये यह तथ्य चिन्तनीय, मननीय, पर्यालोचनीय एवं पालोचनात्मक तथा तुलनात्मक सूक्ष्म दृष्टि से विचारणीय है कि दिगम्बर परम्परा के परम्परागत श्रमणाचार ही नहीं अपितु श्रमण वेष का पूर्णतः परित्याग कर देने के उपरान्त भी भट्टारक परम्परा के मूर्धन्य आचार्यों, मण्डलाचार्यो, पीठाधीशों एवं साधुओं ने अपनी परम्परा के नाम-मूल-संघ, कौण्ड-कौण्डान्वय (कुन्द-कुन्दान्वय), देशीगरण और पुस्तक गच्छ प्रादि वही रखे जो दिगम्बर परम्परा में प्रचलित थे। ऐसा अनुमान किया जाता है कि भट्टारक परम्परा के कर्णधारों ने पूर्व से प्रचलित इन नामों को अपनाने में यापनीय संघ के प्राचार्यों एवं यापनीय संघ के भट्टारकों का अनुसरण किया हो । यह स्मरणोय है कि मध्ययुग में कौण्ड-कुण्ड स्थान यापनीयों, भट्टारकों एवं दिगम्बरों का गढ़ रहा है। दिगम्बर परम्परा के भट्टारकों और यापनीय संघ के अनेक गणों तथा गच्छों द्वारा दिगम्बर संघ के गरणों, गच्छों आदि के नाम अपना लिये जाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि दिगम्बर, यापनीय और भट्टारक-इन तीनों परम्परायों के मध्य युगीन प्राचार्यों, प्राचार्य परम्परामों को पृथक-पृथक रूप से पहिचाननाछांटना, इनकी परम्पराओं के प्राचार्यों की क्रमवद्ध नामावलि तैयार करना, प्राज के शोधाथियों के लिए प्रति दुप्कर ही नहीं अपितु नितान्त असम्भव कार्य हो गया है। उदाहरण के लिये प्राचार्य माघनन्दि का नाम अथवा इनके द्वारा अभिनव रूप में संस्थापित भट्टारक परम्पग के किमी भी प्राचार्य का नाम ले लिया जाय, इन सब ने अपनी परम्परा का पहिचान-मूल मघ, कुन्दकुन्दान्वय, देशी गग पार पुस्तक गच्छ के नाम मे दा है। परन्तु क्या कोई भी इतिहास का विद्वान् इम परम्परा के प्राचीन प्राचार्यों और ग्राचायं माघनन्दि तथा उनके द्वारा स्थापित भट्टारक परम्परा के प्राचार्यों को एक ही परम्परा के प्राचाय मानने को तैयार है ? कभी नीं। इस भट्टारक परम्परा के प्राचार्यों ने और स्वयं प्राचार्य माघनन्दि ने मन्दिरों, वसदियों, मठों आदि का पौरोहित्य किया, साधुपा के आहार आदि की व्यवस्था के लिए, मन्दिरों, वसदियों के निर्माण, पुननिर्मागा, जीद्विार अथवा पूजा-अर्चा आदि की व्यवस्था के लिये ग्राम-दान, भूमि-दान, द्रव्य-दान प्रादि ग्रहण किये । इन प्राचार्यों द्वारा ग्रहण किये गये ग्राम-दान, भूमि-दान आदि दान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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