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भट्टारक परम्परा ]
तदाखिलादि शास्त्रज्ञ, सिंहनन्दि मुनीश्वरम् । समाहूयाथ पट्टाभिषेकं कृत्वा ततः परम् ॥२१०॥ प्रदत्वा शिबिकाच्छत्र, चामरादि परिच्छदान् । दत्वा रत्नमयं पिच्छं-चामरे च तथाविधे ॥२११।। कारयित्वा पुरे नाना वाद्येस्तस्य प्रभावनाम । सर्वाधिकार पदवीं, दत्वैवाति प्रभावतः ॥२१२।। तथा देशान्तर स्थानां, नरेन्द्राणां च लेखनम् । भिन्नसंघाधिनाथानामपि प्रेषितवान्मुदा ॥२१३।।
प्राचार्य माघनन्दि कितने प्रतापी, यशस्वी, लोकप्रिय एवं कुशल प्रभावक प्राचार्य थे, इस सम्बन्ध में यशस्वी अग्रगण्य पुरातत्वविद् विद्वान् स्व० श्री पी. बी. देसाई और "जैनाचार्य परम्परा महिमा" के शताब्दियों पूर्व हुए रचनाकार भट्टारक चारुकीर्ति (३१वें) के उल्लेखों में कितना साम्य है। यह द्रष्टव्य एवं मननीय है। स्व० श्री देसाई ने अपनी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति-Jainism In South India & Some Jaina Epigraphs' के पृष्ठ १२१ पर लिखा है :
Maghanandi of the Roopa Narayan temple of Kolhapur was an eminent personality in the history of Jaina church of this area, & he contributed immensely to the prosperity of the faith by his erudition & efficient administration of the ecclesiastical organisations under him & through the able band of his scholarly desciples, during his long regime of nearly three generations.
और चारुकीति (३१वें) ने अपनी रचना "जैनाचार्य परम्परा महिमा" में लिखा है :
श्री मूलसङ्घाचार्योऽयमिति सर्व प्रसिद्धिजम् । तदाभून्माघनन्द्यार्यस्यास्य नाम मनोहरम् ॥२१४।। धर्माचाराय कृतवान्पञ्चविंशति पीठिकाः । तत्तद्योग्यान्स्थापयित्वा, शिष्यान्शास्त्रविशारदान् ।।२१५।। राजतं पीठमेतेषां पादुके दारुकल्पिते। छत्र चामर शून्यं तद्राजचिह्नमितीडितम् ॥२१६।। प्रोक्त वा तहापयित्वाथ, तानाहय मुनीश्वरः। प्राचार्य सेवकाः यूयमिति तेषां समब्रवीत् ।।२१७।।
प्राचार्य माघनन्दि ने युवावय के अपने ७७० शिष्यों को सिद्धांतों के साथ साथ व्याकरण, छन्दशास्त्र, ज्योतिष आदि सभी प्रकार की विद्यामों का उच्च कोटि
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