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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
सौवर्णं राजतं लौहमयं वेत्रान्वितं च वा। मतं वलयपिच्छं हि, यथा योग्यं न चान्यथा ॥१७६।। यस्मादिमे विस्मरन्ति, लीलासंकल्प चोदिताः ।
वेत्र दण्डान्वितं पिच्छं, तस्मात्तद्वलयान्वितम् ।।१८०।।
सोना, चांदी और लोहे के वलय से वेष्टित वेत्रदण्ड युक्त पिच्छ हाथ में लिये और वस्त्र धारण किये हुए भाव -निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म में दीक्षित एक साथ ७७० मुनियों के विशाल जनसमूह को कोल्हापुर में देखकर हर्षविभोर उपस्थित जनसमूह ने अवश्यमेव कहा होगा-"अहो ! आज तो यह कोल्हापुर वस्तुतः क्षुल्लकपुर बन गया है। शिलालेखों में क्षुल्लकपुर के नाम से कोल्हापुर के उल्लेख से भी "जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक पुस्तक की प्रामाणिकता सिद्ध होती है ।
उपरिवरिणत शिलालेखों में प्राचार्य कुलचन्द्र के शिष्य आचार्य माघनन्दि, महाराजा गण्डादित्य और उनके महासामन्त निम्बदेव से सम्बन्धित जो उल्लेख हैं, ठीक उसी प्रकार का वर्णन “जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक अप्रकाशित एवं हस्तलिखित पुस्तक में भी विद्यमान है। इन दोनों में परस्पर कितना साम्य है, इसका विद्वान् तुलनात्मक दृष्टि से पर्यालोचन कर सकें, इस अभिप्राय से "जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक पुस्तक में उल्लिखित एतद्विषयक श्लोक यहां उद्धत किये जा रहे हैं:
कुलभूषण योगीन्द्रः सधर्मा सम्प्रकीर्तिताः । एते हि तस्य पट्टेऽभूत कुलचन्द्रो मुनीश्वरः ॥६६॥ तस्य. पट्टे हि संजातो, माघनन्दीति विश्रु तः । जैनसिद्धान्त चक्रेशः, कोल्लापुर मुनीश्वरः ॥१०॥ त्रिगुप्ति भूषितः सोऽपि, सकलाचार संयुतः । सर्वतन्त्र स्वतन्त्रात्मा, नैमित्तिकविधौ विधिः ॥१०१।। तस्मिन्कोल्लापुरे सर्व · भूमीश्वरनतक्रमः । वीरचड़ामणि ति, गण्डादित्यो नरेश्वरः ।।१०२।। तस्य सेनापति: पुण्य मूर्तिः कीर्ति विभासुरः । श्री निम्बदेव सामन्तो, वीर सीमन्तिनीपतिः ।।१०६॥
भट्टारक परम्परा के पीठाधीश आचार्यों के पास भव्य भवन, भृत्य, भूमि, चल-अचल सम्पत्ति, विपुल धनराशि, छत्र, चामर, सिंहासनादि राजचिह्नों एवं शिविका आदि रखने का भी प्रावधान प्राचार्य माघनन्दि ने रखा। यथा :--
तदर्थं राजचिह्न श्च, भाव्यं भृत्यैर्धनैरपि । प्राचार्यस्य हि तत्सर्वं, त्वत्सहायेन नान्यथा ।।२०५।।
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