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भट्टारक परम्परा ]
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दिया। इस प्रकार का उल्लेख कागल क्षेत्र के बामनी ग्राम से प्राप्त हए शिलालेख में है। इस शिलालेख के अनुसार विजयादित्य ने यह दान आचार्य माघनन्दि के एक विद्वान् शिष्य अर्हन्नन्दि सिद्धान्त देव को दिया।'
(५) कोल्हापुर नगर के शुक्रवार नगर द्वार के पास जैन मन्दिर के एक शिलालेख सं० ३२० और कागल नगर के समीपस्थ बामणी गाँव के जैन मन्दिर के दरवाजे पर अवस्थित शिलालेख सं० ३३४ में शिलाहार वंशीय राजाओं की वंशावलि उल्लिखित है। उसका क्रम इस प्रकार है :-- (१) शीलहार महाक्षत्रिय जतिग, (२) गोंकल, (३) मारसिंह, (४) गूवल-गंगदेव, बल्लाल देव, अोज देव, (५) गण्डरादित्य, (६) विजयादित्य । इन लेखों में शिलाहार राजाओं को जीमूतवाहन का वंशज बताया गया है और क्षुल्लकपूर का उल्लेख है। ये दोनों शिलालेख क्रमश: शक सं. १०६५ (ई० सन् ११४३) और १०७३ (ई० सन् ११५१) के हैं।'
(६) कोल्हापुर के, विभिन्न शिलालेखों में कोल्हापुर, कोलगिर और क्षुल्लकपुर ये ४ नाम उटैंकित मिलते हैं । कोल्हापुर का क्षुल्लकपुर नाम इस नगर में भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव की उस अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना को महत्व देते हुए ही रखा गया प्रतीत होता है, जिसका कि उल्लेख मेकेन्जो के संग्रह में उपलब्ध “जैनाचार्य परम्परा महिमा" नाम की हस्तलिखित पुस्तक में विद्यमान है, जो अभी तक प्रकाश में नहीं आई है। भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव पर प्रकाश डालने वाली उस ऐतिहासिक घटना का विवरण ऊपर प्रस्तुत कर दिया. गया है कि प्राचार्य माघनन्दि, कोल्हापुर नपति गण्डरादित्य और उनके महासामन्त सेनापति निम्बदेव की अभिसन्धि से प्राचार्य माघनन्दि को ७७० (सात सौ सत्तर) कुलीन, कुशाग्रबद्धि, स्वस्थ, सुन्दर एवं सशक्त किशोर, शिष्यों के रूप में मिले । सिद्धान्तों एवं सभी विद्याओं का शिक्षण देने से पूर्व ही आचार्य माघनन्दि ने अपने उन ७७० शिष्यों को भावनिर्ग्रन्थ दीक्षा देते समय कहा था :
गण्डादित्य नराधीश ! शृणु सर्वेऽपि बालकाः । इमे दीक्षां हि गृहणन्ति, महद्भिः पुरुष ताम् ।।१७५।। क्व महाव्रतमेतद्धि, सुविरक्ति प्रबोधितः । महाधीरै तं क्वैते, बालका: बल वर्जिताः ।।१७६॥ तथापि दीयते देश-काल शक्त यनुसारतः । . शक्तितस्तप इत्येतत्सर्वसिद्धान्त सम्मतम् ॥१७७।। एतेषां भाव नैर्ग्रन्थ्यमेव शक्ति प्रचोदितम् । अति बाला इमे यस्मान्न द्रव्यगमुदीरितम् ।।१७८।।
१ एपिग्राफिका इण्डिका, वोल्यूम III, पृष्ठ २११ एफ एफ २ जैन शिलालेख मंग्रह भाग ३, लेख मं० ३२० और ३२४, पृष्ठ ५३-५६ और ६५-६८
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