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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ एवं श्राविकाओं के संघों की सर्वेसर्वा संचालिकाएं थीं। इनमें संघ कुरत्तीगल नामक संघाधिपा का नाम उल्लेखनीय है, जो एक संघ की प्रमुखा अर्थात् प्राचार्या थीं।' उनमें तिरुमले कुरत्ती (तिरुमले जैन संघ की गुरुणी अथवा प्राचार्या) नामक ऐसी महान साध्वी थी जो विशाल जैन संघ की प्राचार्या थीं। उन आचार्या तिरुमल कुरत्ती (गुरुपी) के एक एनाडिकुट्टनन नामक साधु शिष्य का उल्लेख भी तामिलनाड से प्राप्त एक शिलालेख में उपलब्ध होता है। इन शिलालेखों में से एक शिलालेख में एक ऐसी तिरुपरत्ती कुरत्ती नामक साध्वी प्रमुखा का उल्लेख भी है जो भट्टारक पद पर आसीन पट्टिनी भट्टार नामक साध्वी भट्टारक की शिष्या थी ।
आगम साहित्य में और प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल तक के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के प्रागमेतर साहित्य में एक भी ऐसा उदाहरण उपलब्ध नहीं होता, जिसमें एक साध्वी को स्वतन्त्र रूप से साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप संघ की संचालिका, प्राचार्य-भट्टारक अथवा गुरुणी के पद पर अधिष्ठित किया गया हो । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही संघों में एक साध्वी को चाहे वह कितनी भी विदुषी; वयोवृद्धा अथवा ज्ञानवृद्धा क्यों न हो; आचार्य पद पर अधिष्ठित नहीं किया जाता । इन दोनों संघों में कहीं ऐसा विधान उपलब्ध नहीं होता कि एक साध्वी एक पुरुष को श्रमण धर्म में दीक्षित कर उसे अपना शिष्य बना सकती हो।
__इन शिलालेखों से प्राभास होता है कि दक्षिणापथ में "स्त्रीणां तदभवे मोक्षः" अर्थात स्त्रियां भी पुरुषों के समान उसी भव में मोक्ष पा सकती हैं".-इस बात पर विशेष बल देने वाले, इस बात का दक्षिणापथ में प्रबल प्रचार करने वाले यापनीय संघ का कर्णाटक प्रान्त के समान तामिलनाडु में भी प्राबल्य रहा हो और साध्वी प्राचार्यों द्वारा संचालित वे संघ यापनीय संघ के अभिन्न अंग रहे हों। इस विषय में गहन शोध की आवश्यकता है । विषयान्तर के भय से यहाँ इस विषय पर विशेष न कह कर यापनीय संघ विषयक अगले अध्याय में विस्तार से प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा।
इस शिलालेख में यह भी बताया गया है कि इस मन्दिर को जो दान दिया गया, वह कराड़ के शिलाहार वंशोय दो राजकुमारों-महामण्डलेश्वर वल्लाल देव और गण्डरादित्य (गुरु परम्परा महिमा में गण्डादित्य नाम दिया हुआ है, जो छन्द की दृष्टि से गण्डरादित्य का संस्कृत रूपान्तर प्रतीत होता है) द्वारा दिया गया । इस 9, South Indian Inscription Vol. V (Inscription No. 319, 322, 323). २. , . , No. 370.
h , No. 372.
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