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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १६६ शिलालेख में मूल संघ के "पुन्नागवृक्षमूलगरण" का उल्लेख वस्तुतः ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।' क्यों कि 'पुन्नागवृक्षमूलगरण' का सम्बन्ध सामान्य रूपेण अनेक शिलालेखों में यापनीय संघ के साथ उपलब्ध होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि कोल्हापुर सम्भाग में यापनीय संघ बड़ा लोकप्रिय था । . इस शिलालेख में यद्यपि किसी संवत् प्रथवा तिथि श्रादि का उल्लेख नहीं है, तथापि पुरातत्त्वविद् विद्वानों ने इसे ई. सन् १९९० के आस-पास का माना है । (२) कुण्डी प्रान्त के तेरिदाल नगर में रट्ट राजवंशीय महामाण्डलिक गो ने भगवान् नेमिनाथ के मन्दिर का निर्मारण करवाया और वहां जैन साधुनों के भोजन प्रादि की व्यवस्था के लिये ई. सन् १९२३ - २४ के आस-पास एक बड़े भू-भाग का दान उस मन्दिर को दिया । यह भू-दान महामाण्डलिक गोङ्क द्वारा रवंशीय राजा कार्त्तवीर्य (द्वितीय) की विद्यमानता में दिया गया और इस अवसर पर प्राचार्य माघनन्दि सैद्धांतिक को विशेष रूप से श्रामन्त्रित किया गया । वे माघनन्दि श्राचार्य कोल्हापुर प्रान्तीय मुनि संघ के अधिष्ठाता मण्डलाचार्य मौर कोल्हापुर की रूपनारायण वसदि के सर्वेसर्वा मठाधीश थे । वे मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय, देशिगरण, पुस्तक गच्छ के आचार्य और कुलचन्द् देव के शिष्य थे । उन प्राचार्य माघनन्दि का शिष्य संघ सुविशाल था । भूदान विषयक उपर्युक्त शिलालेख में माघनन्दि के शिष्यों में से प्रमुख शिष्यों - कनकनन्दि, श्रुतकीर्ति त्रैविद्य, चन्द्रकीर्ति पण्डित, प्रभाचन्द्र पण्डित और वर्द्धमान के नामों का उल्लेख है । प्राचार्य माघनन्दि के विषय में इस शिलालेख में उल्लेख है कि वे महासामन्त निम्बदेव के धर्मगुरु थे । महासामन्त निम्बदेव ने अपने स्वामी गण्डरादित्य ( गण्डादित्य) के एक विरुद 'रूपनारायण' नाम पर 'रूपनारायण' वसदि का निर्मारण करवाया । महाराजा गण्डरादित्य के अनेक विरुदों ( उपाधियों - उपनामों) में 'रूपनारायरण' भी एक लोकप्रसिद्ध विरुद था । इसी शिलालेख के नीचे कालान्तर में उटंकित अभिलेख के अनुसार इसी मन्दिर के एक शिलालेख में उल्लेख हैं कि गोंक द्वारा इस मन्दिर के निर्माण और भूदान के ६० वर्ष पश्चात् अर्थात् ई० सन् १९८२ के आस-पास व्यापारियों के 'अय्यावले पांच सौ' नामक महासंघ ने व्यापारी मण्डियों में इस मन्दिर की स्थायी आर्थिक व्यवस्था के निमित्त एक प्रकार का धार्मिक शुल्क लगा दिया। ई० सन् १९८७ में महासेनापति तेजुगी दण्डनायक के पुत्र भाई देव ने, जो कि कुण्डी प्रान्त का प्रशासक था, इस मन्दिर को भूमि और भवनों का दान दिया । २ १. Lbid, Vol. XI, pp. 1477 २. Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs by P. B. Desai, P. 119. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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