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________________ भट्टारक परम्परा ] . [ १६७ करना पड़ेगा। इस विकट समस्या को सुलझाने के लिए भ० चारुकीर्ति ने अपने एक शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बना, उसे चारुकीर्ति नाम देकर वहां रख दिया। तदनन्तर चारुकीति भट्टारक पुनः स्वर्णबेल्गुल लौट आये। इस प्रकार भल्लातकी में भी भट्टारकों की एक शाखा स्थापित हो गई। ये चारुकीर्ति भट्टारक महाराजा वल्लाल के प्राणों की रक्षा करने वाले चारुकोति के पश्चात् उनके २५वें पट्टधर हुए। __ "जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक लघु ग्रन्थ के रचनाकार भी चारुकीर्ति हैं और उन्होंने अपने आपको उन चारुकीति का ३१वां पदधर बताया है, जिन्होंने कि महाराजा वल्लाल के प्राणों की रक्षा की थी। ___"जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक ३४६ श्लोकों के हस्तलिखित लघु ग्रन्थ के आधार पर जो भट्टारक परम्परा पर प्रकाश डाला गया है. उसमें वरिणत प्राचार्य माघनन्दि, गण्डरादित्य राज-राजेश्वर, राजा वल्लाल, महासामन्त निम्बदेव, प्राचार्य माघनन्दि का विशाल शिष्य परिवार आदि-आदि प्रायः सभी पात्र वस्तुतः ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले पुरातात्विक ठोस प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। महासामन्त निम्बदेव द्वारा निर्मित कोल्हापुर की रूप नारायण वसदि में तथा कोल्हापुर संभाग के कागल नामक नगर के समीपस्थ होन्नूर के जैन मन्दिर में और कुण्डी प्रदेशस्थ सांगली विभाग के तेरदाल नगर के नेमिनाथ मन्दिर में मिले शिलालेखों से इन सब की ऐतिहासिकता के साथ-साथ भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव एवं माघनन्दि, वल्लाल, गण्डरादित्य (गण्डादित्य) निम्बदेव आदि का समय भी ऐतिहामिक आधार पर सुनिश्चित होता है । वे ऐतिहासिक तथ्य इस प्रकार हैं :-- (१) कोल्हापर सम्भाग में कागल नगर के समीपस्थ होन्नर नगर के जैन मन्दिर में एक मूर्ति के प्रायाग पट्ट पर उटैंकित शिलालेख में ऐतिहासिक महत्व की अनेक बातों पर प्रकाश डाला गया है। उस शिलालेख में महामण्डलेश्वर वल्लाल देव एवं गण्डरादित्य द्वारा इस मन्दिर को दिये गये एक बड़े दान का उल्लेख है, जो साधु-साध्वियों के खान-पान की व्यवस्था हेतु दिया गया था। इस शिलालेख के लेखानुसार बम्मगावुण्ड नामक गृहस्थ द्वारा इस मन्दिर का निर्माण करवाया गया । वह बम्मगावुण्ड रात्रिमती नाम की एक बैन साध्वी का गृहस्थ शिष्य था। इससे यह तथ्य प्रकाश में प्राता है कि तामिलनाडु के समान कर्णाटक प्रदेश में भी जैन साध्वियों का एक ऐसा संघ था जो जैनाचार्यों के समान ही श्रावक वर्ग पर अपना पूर्ण प्रभाव एवं वर्चस्व रखता था और पुरुषों को अपना परम भक्त, अनुयायी और यहां तक कि गृहस्थ शिष्य भी बनाता था । तामिलनाड से प्राप्त प्राचीन शिलालेखों में अनेक ऐसी साध्विमुख्यानों, महान् साध्वियों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जो बड़े-बड़े संघों की प्राचार्य - बड़े-बड़े संघों यहां तक कि साधूत्रों. माध्वियों, थावकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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