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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
एक भीषण बिवर (बिल) प्रकट हा । उस बिल में से अग्नि की भीषण ज्वालाए निकलने लगीं, बड़े-बड़े अंगारे निकल कर चारों ओर फैलने लगे। उस बिल में से इतना अधिक धुंआ निकलने लगा कि प्रासाद और गगन-मण्डल उस धुए से इस प्रकार छा गया जैसे कि वर्षाकाल में घूमड़ती हई घनघटाओं से आकाश आच्छादित हो गया हो । उस बिल से जो प्रलयंकर दृश्य उत्पन्न हुआ, वह इतना वीभत्स था कि उसे देखते ही लोग मूच्छित हो जाते थे। उस ज्वालामुखी की शान्ति के लिए अनेक उपाय सोचे गये। मिथ्या दर्शनियों ने उसको शान्ति का उपाय बताते हुए राजा से कहा कि इस बिल को महिष, बकरों आदि पशुओं के रक्त से भर दिया जाय । बिना पशुओं के रक्त के यह बिल बन्द होने वाला नहीं है। राजाधिराज वल्लाल इस पापकृत्य के नाम मात्र से कांप उठा। उसने भट्टारक चारुकीर्ति की सेवा में उपस्थित हो संकट से रक्षा की प्रार्थना की। चारुकीति भट्टारक ने कुष्माण्डिनी देवी का आह्वान कर कुष्माण्डों से उस बिल को भर दिया और उस पर सिंहासन जमा कर वे उस पर बैठ गये। तत्काल ज्वालामुखी बिल द्वारा उत्पन्न घोर संकट नष्ट हो गया। अंग आदि अनेक देशों के राजाओं ने साष्टांग प्रणाम कर चारुकीर्ति की स्तुति की और उन्हें “वल्लालराज सज्जीव रक्षक" के विरुद से विभूषित कर छहों दर्शनों को उपासक सम्पूर्ण प्रजा का स्थापनाचार्य घोषित किया।
इन भट्टारक चारुकीति के प्राचार्यकाल में जिनशासन की प्रतिष्ठा पराकाष्ठा पर पहुंच गई। जन-जन के अन्तर्मन पर चारुकीर्ति के नाम की गहरी छाप अंकित हो गई। चारुकीर्ति के नाम के चमत्कार को दृष्टि में रखते हुए यह नियम बना दिया गया कि कालान्तर में श्रवण बेल्गुल के सिंहासन पर अभिषिक्त होने वाले सभी भट्टारकों का नाम चारुकीर्ति ही रखा जाय ।'
भट्टारक देवचन्द्र के शिष्य उन चारुकीर्ति के पश्चात् कतिपय चारुकीर्ति नाम के भट्टारक हुए। उनके पश्चात् चारुकीति नामक एक अन्य प्राचार्य हुए। बैंकटार्य राजा की विनति स्वीकार कर वे चारुकीति भट्टारक एक बार भल्लातकी पत्तन गये। वहां भैरव नामक एक राजा भो पापकी सेवा में पाया । भट्टारक चारुकीर्ति ६ मास तक भल्लातकीपत्तन में रहे। भैरव नामक राजा सदा उनके दर्शन प्रवचनश्रवण करता। उसके अन्तर्मन में चारुकीति प्राचार्य के प्रति प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न हुई पीर उसने यह नियम ग्रहण कर लिया कि वह जीवनभर भ० चारुकीर्ति के चरणों की पूजा किये बिना भोजन नहीं करेगा। ६ मास पश्चात् जब वे भट्रारक चारुकीर्ति पुनः श्रवणबेल्गूल पाने के लिए उद्यत हए तो राजा भैरव ने कहा-"प्राचार्यदेव ! 'मुझे भी आप श्रमणधर्म की दीक्षा दे दीजिये। अन्यथा पापके चले जाने पर तो मुझे अपने नियम की रक्षा के लिए आमरण अनशन ही ' श्रवण बेल्गुल में प्रद्यावधि यही नियम प्रचलित है।
-मम्पादक
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