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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १६५ प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र के पश्चात् कलधौतनन्दि दक्षिणाचार्य के पद पर अधिष्ठित किये गये । प्राचार्य कलधौतनन्दि के पश्चात् हुए कतिपय दक्षिणाचार्यों के नाम, "जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक लघु ग्रन्थ में निम्नलिखित क्रम से दिये गये है माघनन्दि (तृतीय), मेघचन्द्र, अभयचन्द्र, बालचन्द्र, माघनन्दि (चतुर्थ), ग्रण्डविमुक्त, गुणचन्द्रदेव, हेमसेन पण्डित, वादिराज, मेघचन्द्र (द्वितीय), गुणचन्द्र, नयकीर्ति, कनकनन्दि पण्डित, भानुकोति, देवेन्द्रकीति, जयकीर्ति, गोपनन्दि, (जिनकी पालकी को व्यन्तर वहन करते थे), माघनन्दि (पंचम), वासव सुचन्द्र (जो चालुक्य राज की सेना में बाल सरस्वती के नाम से विख्यात थे), विशालकीति, दामनन्दि, गुरगनन्दि, मलधारी, श्रीधराचार्य, सुतनन्दि, माधवचन्द्र, उदयचन्द्र, मेघचन्द्र (इनके समय से बालचन्द्र पण्डिताचार्य पद पर विराजमान रहे), अभयनन्दि, सोमदेव, ललितकीति, कल्याणकीर्ति, महेन्द्रचन्द्र, शुभकीति, जिनेन्द्रचन्द्र, यश:कीर्ति, वासवचन्द्र, चन्द्रनन्दि, सूबाह पण्डिताचार्य, वषेन्द्रसेन, महेन्द्रसेन, धर्मसेन, कुलभूषण, नन्दिपण्डित, माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती (षष्ठम), विशदकीर्ति, शुभचन्द्र, चारुकोति, माघनन्दि (सप्तम), अभयचन्द्र, बालचन्द्र पीर रामचन्द्र । इस भांति जिस प्रकार रोहणगिरि से अनमोल रत्न निकलते हैं, उसी प्रकार मुनिरत्नों की खान स्वर्णवेल्गुल के मुख्य पीठ से अनेक महान् प्राचार्यों का उदय हुआ। ये सभी प्राचार्य विपुल विद्या वैभव के धनी और शाप तथा अनुग्रह दोनों ही विद्याओं में सक्षम थे। यह श्रवणबेल्गुल मुख्य पीठ के सिंहासन का ही चमत्कार था कि जो भी मुनि प्राचार्य पद पर अभिषिक्त हो इस सिंहासन पर बैठता, वही इस सिंहासन को शक्ति से स्वतः ही शापानुग्रह-समर्थ और अद्भुत् विद्याभव-सम्पन्न हो जाता था। भट्टारक रामचन्द्र के पश्चात् श्रवणबेल्गुल के सिंहासन पर भट्टारक शिरोमरिण देवकीर्ति हुए। तदनन्तर भट्टारक देवचन्द्र हए, जिनके द्वार पर छोटिंग नामक यक्ष सदा बैठा रहकर इनके द्वारपाल का कार्य करता था । बैताली सदा इनके चरण युगल की सेवा करती थी और अनेकों व्यन्तर इनकी पालकी को उठाते थे। अनेक भूतगण उनका प्रादेश पालने के लिए सदा तत्पर रहते थे। देवचन्द्र के पश्चात् उनके शिष्य चारुकीति आचार्य पद पर आसीन हुए । ये चारुकोति भट्टारकों में सूर्य के समान थे । चारुकीर्ति वस्तुत: अद्भुत प्रतिभासम्पन्न थे अत: इनकी कलिकाल गणधर के नाम से चारों ओर ख्याति फैल गई थी। महाराजा वल्लाल के प्राणों की रक्षा करने के कारण आपकी यशोपताका सुदूर प्रान्तों तक फहराने लगी थी। एकदा महाराजाधिराज वल्लाल के राजप्रासाद में ज्वालामुखी के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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