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भट्टारक परम्परा ]
[ १६३ आचार्य देवेन्द्रकीर्ति के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी माघनन्दि (द्वितीय) को आचार्य पद प्रदान किया गया। माघनन्दि (द्वितीय) के पश्चात् उनके पट्ट शिष्य नेमिचन्द्र को आचार्य पद पर अभिषिक्त किया गया। प्राचार्य नेमिचंद्र ने राजा चामुण्ड को प्रतिबोध दिया।
श्रवण बेल्गोल तीर्थ तथा वहां मुख्य पीठ की स्थापना एक दिन शुभ मुहूर्त में महाराजा चामुण्डराय आचार्य श्री नेमिचंद्र और उनके शिष्य वर्ग के साथ बाहुबली की मूर्ति के दर्शनों की अभिलाषा लिये मदुरापत्तन से पोदनपुर की ओर प्रस्थित हुआ । उसके साथ उसकी विशाल वाहिनी और भृत्य गण भी थे। प्रयारण और स्थान-स्थान पर पड़ाव डालकर विश्राम करते हुए वे सब बेल्गोल के पास पहुंचे। बेल्गोल के पास गगनचुम्बी, गिरिराज, विन्ध्याचल को देख महाराज चामुण्ड ने वहां रात्रि विश्राम के लिए पड़ाव डाला।
रात्रि की अवसान बेला में, राजा चामुण्ड के पूर्वाजित पुण्यों के प्रताप से नख-शिख (आपादशीर्ष) शृगार की हुई सपुत्रा कुष्माण्डिनी देवी ने स्वप्न में चामुण्डराज को दर्शन दे परम प्रसन्न मुद्रा में उससे कहा-“ो महिप चामुण्डराज! तुम सदल-बल इतनी दूरी पर अवस्थित पोदनपुर तक कैसे पहुँच सकोगे, अर्थात् वहां क्यों जा रहे हो ? रावण द्वारा अचित-पूजित गोम्मटेश की मूर्ति यहीं विन्द्यगिरि के विशाल शिलाखण्डों से ढंकी हुई विद्यमान है । तुम्हारे द्वारा बांरण के प्रयोग मात्र से गोम्मटेश तुम पर प्रसन्न हो जायेंगे और तुम्हें दर्शन दे देंगे।" बस इतना ही कह कर देवी कुष्माण्डिनी अदृश्य हो गई।'
सूर्योदय होते ही महाराज चामुण्ड ने आचार्य नेमिचंद्र को अपना आद्योपान्त स्वप्न सुनाया और उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर देवी द्वारा निर्दिष्ट स्थान में बांग चलाया । बांण चलाते ही सबको दर्शन देते हुए गोम्मटेश प्रकट हो गये । तत्काल महाराज चामुण्ड ने गोम्मटेश जिन की पूजा की। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने शास्त्रों से सार ग्रहण कर गोम्मटसार, त्रिलोकसार और लब्धिसार नामक तीन सारभूत उत्तम ग्रंथों की रचना की । वहीं बेल्गोल पत्तन में राजा चामुण्डराज ने भी लोक-भाषा में त्रिपष्टि (श्लाघ्य) पुरुष पुराण नामक पुराण की रचना की।
बेल्गोल में गोम्मटेश के प्रकट होने, गोम्मटसार आदि सारत्रय उत्तम ग्रन्थों के प्रणयन तथा त्रिषष्टि पुरुष पुराण की रचना-इन तीनों कारणों से बेल्गोल
अस्मिन् विन्द्याचले स्थूल, शिलाखण्डस्तिराहितेः । स एव गोम्मटेशोऽस्ति, · रावरणेन समचितः ।।२३।। बाणप्रयोगमात्रेण, प्रसन्नस्तव जायते । इति वाचं समुद्गर्य, तिरोभूत्वा गता हि सा ॥२३६॥
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